अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 50
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
इ॒दमिद्वा उ॒नाप॑रं दि॒वि प॑श्यसि॒ सूर्य॑म्। मा॒ता पु॒त्रं यथा॑ सि॒चाभ्येनं भूम ऊर्णुहि॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम् । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । न । अप॑रम् । दि॒वि । प॒श्य॒सि॒ । सूर्य॑म् । मा॒ता । पु॒त्रम् । यथा॑ । सि॒चा । अ॒भि । ए॒न॒म् । भू॒मे॒ । ऊ॒र्णु॒हि॒ ॥२.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमिद्वा उनापरं दिवि पश्यसि सूर्यम्। माता पुत्रं यथा सिचाभ्येनं भूम ऊर्णुहि॥
स्वर रहित पद पाठइदम् । इत् । वै । ऊं इति । न । अपरम् । दिवि । पश्यसि । सूर्यम् । माता । पुत्रम् । यथा । सिचा । अभि । एनम् । भूमे । ऊर्णुहि ॥२.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 50
विषय - जैसे माता पुत्र को
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार उत्कृष्ट आत्मज्ञान को प्राप्त करनेवाले पितर प्रभु के प्रकाश को देखते हुए कहते हैं कि (इदम् इत् वा उ) = निश्चय से यह ब्रह्म ही सत्य है। (न अपरम्) = इसके समान और कुछ नहीं [अन्यत् सर्वमातम्] (दिवि सूर्य पश्यसि) = ये प्रभु तो ऐसे हैं जैसे द्युलोक में सूर्य [आदित्यवर्ण, तमसः परस्तात]। वहाँ अन्धकार का चिह भी नहीं है। २. (भूमे) = सब प्राणियों के निवास स्थानभूत प्रभो ! [भवन्ति भूतानि अस्याम्] (यथा) = जैसे माता-माता (पुत्रम्) = पुत्र को (सिचा) = वस्त्र प्रान्त से आच्छादित कर लेती है, इसीप्रकार आप (एनम्) = अपने इस रूप को (अभि ऊर्णहि) = आच्छादित करनेवाले हों।
भावार्थ - प्रभु अद्वितीय हैं, धुलोकस्थ सूर्य के समान दीप्त है 'ब्रह्म सूर्यसमै ज्योति: । प्रभु अपने भक्त को इसप्रकार अपनी गोद में सुरक्षित कर लेते हैं, जैसे माता वस्त्रप्रान्त से पुत्र को।
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