अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 48
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
उ॑द॒न्वती॒द्यौर॑व॒मा पी॒लुम॒तीति॑ मध्य॒मा। तृ॒तीया॑ ह प्र॒द्यौरिति॒ यस्यां॑ पि॒तर॒आस॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒द॒न्ऽवती॑ । द्यौ: । अ॒व॒मा । पी॒लुऽम॑ती । इति॑ । म॒ध्य॒मा । तृतीया॑ । ह॒ । प्र॒ऽद्यौ: । इति॑ । यस्या॑म् । पि॒तर॑: । आस॑ते ॥२.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
उदन्वतीद्यौरवमा पीलुमतीति मध्यमा। तृतीया ह प्रद्यौरिति यस्यां पितरआसते ॥
स्वर रहित पद पाठउदन्ऽवती । द्यौ: । अवमा । पीलुऽमती । इति । मध्यमा । तृतीया । ह । प्रऽद्यौ: । इति । यस्याम् । पितर: । आसते ॥२.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 48
विषय - उदन्वती, पीलुमती, प्रद्यौः
पदार्थ -
१. प्रकृति का विज्ञान हमें विविध भोगों को प्राप्त कराता है। यहाँ मन्त्र में 'उदक' शब्द भोगों का प्रतीक है। यह (उदन्वती द्यौः) = सब भोगों को प्राप्त करानेवाला प्रकृतिविज्ञान (अवमा) = सबसे निचला है। [पालयति इति पीलः], (पीलुमती इति) = पालक तत्त्वोंवाला जो जीव-विज्ञान है, वह मध्यमा मध्यम ज्ञान है। २. इस प्रकृति व जीव के ज्ञान से (ह) = निश्चयपूर्वक (तृतीया) = तृतीय आत्मविज्ञान है। यह परमात्मज्ञान ही (प्रद्यौः इति) = प्रकृष्ट ज्ञान के रूपों में कहा जाता है। (यस्या:) = जिस 'प्रद्यौः' में-प्रकृष्ट ज्ञान में (पितरः आसते) = पितर आसीन होते हैं। इस ज्ञान को प्राप्त करके ही तो वे पितर बनते हैं। प्रभु का जाननेवाला किसी की हिंसा न करता हुआ रक्षणात्मक कार्यों में ही प्रवृत्त होता है।
भावार्थ - प्रकृतिविज्ञान से हम आवश्यक भोगों को प्राप्त करें। जीवविज्ञान के द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपना पालन कर पाएँ । प्रकृष्ट आत्मविज्ञान हमें रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त करनेवाला हो।
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