अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 19
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिपदार्षी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
स्यो॒नास्मै॑ भवपृथिव्यनृक्ष॒रा नि॒वेश॑नी। यच्छा॑स्मै॒ शर्म॑ स॒प्रथाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्यो॒ना । अ॒स्मै॒ । भ॒व॒ । पृ॒थि॒वि॒ । अ॒नृ॒क्ष॒रा । नि॒ऽविश॑नी । यच्छ॑ । अ॒स्मै॒ । शर्म॑ । स॒ऽप्रथा॑: ॥२.१९॥
स्वर रहित मन्त्र
स्योनास्मै भवपृथिव्यनृक्षरा निवेशनी। यच्छास्मै शर्म सप्रथाः ॥
स्वर रहित पद पाठस्योना । अस्मै । भव । पृथिवि । अनृक्षरा । निऽविशनी । यच्छ । अस्मै । शर्म । सऽप्रथा: ॥२.१९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 19
विषय - 'स्योना' पृथिवी
पदार्थ -
१. हे (पृथिवि) = मातृभूतभूमे! तू (अस्मै) = उल्लिखित प्रकार से साधना करनेवाले के लिए (स्योना) = सुखकारिणी (भव) = हो। (अनृक्षरा) = तू इसके लिए कण्टकरहित हो अथवा [अनक्षरा] मनुष्यों [सन्तानों] का विनाश करनेवाली न हो। (निवेशनी) = तू इसके लिए निवेश देनेवाली हो और (सप्रथा:) = विस्तार से युक्त होती हुई तू (शर्म यच्छ) = सुख देनेवाली हो।
भावार्थ - उत्तम पितरों के सम्पर्क में साधनामय जीवन बितानेवाले पुरुष के लिए यह पृथिवी सुख देनेवाली होती है।
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