अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 53
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अग्नी॑षोमा॒पथि॑कृता स्यो॒नं दे॒वेभ्यो॒ रत्नं॑ दधथु॒र्वि लो॒कम्। उप॒ प्रेष्य॑न्तंपू॒षणं॒ यो वहा॑त्यञ्जो॒यानैः॑ प॒थिभि॒स्तत्र॑ गच्छतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्नी॑षोमा । पथि॑ऽकृता । स्यो॒नम् । दे॒वेभ्य॑: । रत्न॑म् । द॒ध॒थु॒: । वि । लो॒कम् । उप॑ । प्र । ईष्य॑न्तम् । पू॒षण॑म् । य: । वहा॑ति । अ॒ञ्ज॒:ऽयानै॑: । प॒थिऽभि॑: । तत्र॑ । ग॒च्छ॒त॒म् ॥२.५३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नीषोमापथिकृता स्योनं देवेभ्यो रत्नं दधथुर्वि लोकम्। उप प्रेष्यन्तंपूषणं यो वहात्यञ्जोयानैः पथिभिस्तत्र गच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नीषोमा । पथिऽकृता । स्योनम् । देवेभ्य: । रत्नम् । दधथु: । वि । लोकम् । उप । प्र । ईष्यन्तम् । पूषणम् । य: । वहाति । अञ्ज:ऽयानै: । पथिऽभि: । तत्र । गच्छतम् ॥२.५३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 53
विषय - अग्नि और सोम के समन्वय से 'स्योन, रत्न व लोक' की प्राप्ति
पदार्थ -
१. (अग्नीषोमा) = 'अग्नि और सोम' क्रमश: "ज्योति व आप:' के वाचक हैं। 'अग्नि' तेजस्विता व उग्रता है तो 'सोम' शान्ति है। इन दोनों-अग्नि और सोम का समन्वय ही जीवन में अभिप्रेत है। जो (पथिकृता) = मार्ग को बनानेवाले हैं-इन दोनों का समन्वय ही जीवन में ठीक मार्ग है। ये अग्नि और सोम (देवेभ्य:) = देववृत्ति के पुरुषों के लिए (स्योनम्) = सुख को, (रत्नम्) = रत्न को-रमणीय धन को तथा (लोकम्) = प्रकाश को (विदधथु:) = धारण करते हैं। २. (य:) = जो मार्ग (अजोयानैः पथिभिः) = सरल [ऋजुतायुक्त] गतियोंवाले मागों से (प्र ईष्यन्तम्) = [ईष दर्शनं] प्रकर्षेण सबको देखते हुए (पूषणम्) = सर्वपोषक प्रभु को (उपवहाति) = समीप प्राप्त कराता है, हे अग्नीषोमा। आप (तत्र गच्छतम्) = वहाँ ही चलो। उस मार्ग की ओर ही चलो।
भावार्थ - यदि हम अपने जीवन में अग्नि और सोम का समन्वय करेंगे तो देववृत्ति के बनकर सुख, रमणीय धन व प्रकाश को प्राप्त करेंगे। ये अग्नि और सोम हमें उस मार्ग पर ले-चलेंगे जो हमें प्रभु के समीप प्राप्त कराता है।
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