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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 2/ मन्त्र 25
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    मा त्वा॑ वृ॒क्षःसं बा॑धिष्ट॒ मा दे॒वी पृ॑थि॒वी म॒ही। लो॒कं पि॒तृषु॑ वि॒त्त्वैध॑स्व य॒मरा॑जसु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । त्वा॒ । वृ॒क्ष: । सम् । बा॒धि॒ष्ट॒ । मा । दे॒वी । पृ॒थि॒वी । म॒ही । लो॒कम् । पि॒तृषु॑ । वि॒त्त्वा । एध॑स्व । य॒मरा॑जऽसु ॥२.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा त्वा वृक्षःसं बाधिष्ट मा देवी पृथिवी मही। लोकं पितृषु वित्त्वैधस्व यमराजसु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । त्वा । वृक्ष: । सम् । बाधिष्ट । मा । देवी । पृथिवी । मही । लोकम् । पितृषु । वित्त्वा । एधस्व । यमराजऽसु ॥२.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 2; मन्त्र » 25

    पदार्थ -
    १.हे साधक! (त्वा) = तुझे (वृक्षः) = यह संसार-वृक्ष [वृक्ष वरणे]-वरणीय [उत्तम] संसार (मा सम्बाधिष्ट) = बाधा पहुँचानेवाला न हो। यह (देवी) = दिव्यगुणों से युक्त (मही) = महनीय [पूजनीय] (पृथिवी) = भूमिमाता (मा) = मत बाधा पहुँचाए। यह संसार तेरे अनुकूल हो, विशेषकर यह पृथिवी तुझे सब महनीय दिव्य पदार्थों को प्राप्त करके अधिकतम बढ़ानेवाली हो, जैसे माता पुत्र को सब आवश्यक पदार्थों को प्राप्त कराके उसकी उन्नति की हेतु होती है। २. हे साधक! इसप्रकार बड़ा होकर तू (यमराजसु) = संयमी व व्यवस्थित और दीस जीवनवाले (पितृषु) = पितरों में उनके चरणों में (लोकं वित्त्वा) = प्रकाश [आलोक] को प्राप्त करके (एधस्व) = सतत वृद्धि को प्राप्त हो।

    भावार्थ - यह संसार हमारे अनुकूल हो। महनीय पृथिवी हमें दिव्य पदार्थों को प्राप्त कराके उन्नत करे। हम संयमी व दीप्त जीवनवाले पितरों से प्रकाश प्राप्त करके वृद्धि प्राप्त करें।

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