ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 10
ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्दु॑र्वा॒जी प॑वते॒ गोन्यो॑घा॒ इन्द्रे॒ सोम॒: सह॒ इन्व॒न्मदा॑य । हन्ति॒ रक्षो॒ बाध॑ते॒ पर्यरा॑ती॒र्वरि॑वः कृ॒ण्वन्वृ॒जन॑स्य॒ राजा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्दुः॑ । वा॒जी । प॒व॒ते॒ । गोऽन्यो॑घाः । इन्द्रे॑ । सोमः॑ । सह॑ । इन्व॑न् । मदा॑य । हन्ति॑ । रक्षः॑ । बाध॑ते । परि॑ । अरा॑तीः । वरि॑वः । कृ॒ण्वन् । वृ॒जन॑स्य । राजा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्दुर्वाजी पवते गोन्योघा इन्द्रे सोम: सह इन्वन्मदाय । हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातीर्वरिवः कृण्वन्वृजनस्य राजा ॥
स्वर रहित पद पाठइन्दुः । वाजी । पवते । गोऽन्योघाः । इन्द्रे । सोमः । सह । इन्वन् । मदाय । हन्ति । रक्षः । बाधते । परि । अरातीः । वरिवः । कृण्वन् । वृजनस्य । राजा ॥ ९.९७.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 10
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वृजनस्य) बलस्य (राजा) दीपयिता परमात्मा (वरिवः) ऐश्वर्यं (कृण्वन्) उत्पादयन् (रक्षः, अरातीः) शत्रून् राक्षसान् (परि बाधते) नाशयति (इन्दुः) प्रकाशमयः स (वाजी) बलवान् (गोन्योघाः) गतिशीलः (पवते) मां पुनाति च (सोमः) सौम्यस्वभावः (सहः) सहनशीलः परमात्मा (इन्द्रे) कर्मयोगिनि (मदाय) आनन्दाय (हन्ति) विघ्नानि नाशयति (इन्वन्) तं प्रेरयति च ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वृजनस्य) बल का (राजा) प्रदीप्त करनेवाला परमात्मा (वरिवः) ऐश्वर्य्य को (कृण्वन्) करता हुआ (अरातीः) शत्रुरूप राक्षसों को (परिबाधते) नाश करता है और (इन्दुः) वह प्रकाशस्वरूप (वाजी) बलस्वरूप (गोन्योघाः) गतिशील (पवते) हमको पवित्र करता है और (सोमः) सोमस्वभाव (सहः) सहनशील परमात्मा (इन्द्रे) कर्मयोगी में (इन्वन्) शीलस्वभाव की प्रेरणा करता हुआ (मदाय) आनन्द के लिये उक्त गुणों का प्रदान करता है ॥१०॥
भावार्थ
कर्म्मयोगी उद्योगी पुरुषों के सब विघ्नों की निवृत्ति करके परमात्मा कर्म्मयोगी के लिये आत्मभावों का प्रकाश करता है ॥१०॥
विषय
विद्वान् और वीर राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
वह (इन्दुः) तेजस्वी, दयालु, (वाजी) बलवान्, ज्ञानवान्, ऐश्वर्यवान्, संग्रामकुशल, (सोमः) उत्तम शासक, (गोन्योधाः) वेग से जाने वाले अधीन जनसमूह का स्वामी होकर (सहः इन्वन्) बड़े भारी शत्रु-पराजयकारी बल को संचालित करता हुआ (इन्द्रे) ऐश्वर्ययुक्त राज्य के निमित्त (पवते) दुष्टों का शमन और सज्जनों का उपकार करता है। वह (रक्षः हन्ति) दुष्टों को दण्ड देता है और (अरातीः परा बाधते) कर न देने वालों वा अन्यों को धन, ऋण आदि न देने वाले शत्रुओं और अपराधियों को पीड़ित करता है। वह (वृजनस्य राजा) बल का राजा, बलशाली सैन्यपति होकर (वरिवः कृण्वन्) धनैश्वर्य सम्पादन करता हुआ विराज है। इसी प्रकार विद्वान् जन (इन्द्रे) प्रभु परमेश्वर के निमित्त (गोन्योधाः) वाणियों को नम्रता से प्रवाहित करने वाला होकर (मदाय) परमानन्द को प्राप्त करने के लिये (सहः इन्वन्) सहनशीलता, तपस्या को करता हुआ आगे बढ़े। विघ्न-बाधाओं को दूर करता हुआ, वह (वृजनस्य) परम प्राप्य प्रभु की सेवा करता हुआ वह (राजा) स्वयं राजावत् तेजस्वी हो जाता है। इति द्वादशो वर्गः॥
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
वृजनस्य राजा
पदार्थ
(इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम वाजी हमें शक्तिशाली बनानेवाला होकर पवते प्राप्त होता है। यह (इन्द्रे) = जितेन्द्रिय पुरुष में (गोन्योघा:) = [गो नि ओघ] इन्द्रियों में निश्चय से प्राप्त होनेवाले रससमूहवाला है, इस सोम का ही रस सब इन्द्रियों में प्रवाहित होकर उन्हें शक्तिशाली बनाता है। यह (सोमः) = सोम (सहः) = बलकर रस को (इन्वन्) = प्रेरित करता हुआ (मदाय) = जीवन में उल्लास के लिये होता है । यह सोम (रक्षः) = रोगकृमियों को व राक्षसी भावों को (हन्ति) = नष्ट करता है। (अरातीः) = शत्रुओं को (परिबाधते) = हमारे से दूर ही रोकता है। यह सोम (वरिवः कृण्वन्) = वरणीय धनों को करता हुआ (वृजनस्य राजा) = बल को हमारे जीवनों में दीप्त करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम शक्ति का संचार करता है। रोगकृमियों व मानस दुर्भावों का विनाश करता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indu, brilliant Soma, energetic and victorious, pure and purifying, vibrant and dynamic, creating strength, patience and endurance for the soul’s joy, is ever on the move. It destroys evil, prevents negativities and opposition and casts them far off, and, giving wealth, honour and excellence of the best order of our choice, rules as the brilliant creator, controller and dispenser of strength, courage, power and life saving vitality in existence.
मराठी (1)
भावार्थ
कर्मयोगी उद्योगी पुरुषांच्या सर्व विघ्नांची निवृत्ती करून परमात्मा कर्मयोग्यासाठी आत्मभाव प्रकाशित करतो. ॥१०॥
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