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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 21
    ऋषिः - शक्तिर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा न॑ इन्दो अ॒भि दे॒ववी॑तिं॒ परि॑ स्रव॒ नभो॒ अर्ण॑श्च॒मूषु॑ । सोमो॑ अ॒स्मभ्यं॒ काम्यं॑ बृ॒हन्तं॑ र॒यिं द॑दातु वी॒रव॑न्तमु॒ग्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । नः॒ । इ॒न्दो॒ । अ॒भि । दे॒वऽवी॑तिम् । परि॑ । स्र॒व॒ । नभः॑ । अर्णः॑ । च॒मूषु॑ । सोमः॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । काम्य॑म् । बृ॒हन्त॑म् । र॒यिम् । द॒दा॒तु॒ वी॒रव॑न्तम् उ॒ग्रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा न इन्दो अभि देववीतिं परि स्रव नभो अर्णश्चमूषु । सोमो अस्मभ्यं काम्यं बृहन्तं रयिं ददातु वीरवन्तमुग्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । नः । इन्दो । अभि । देवऽवीतिम् । परि । स्रव । नभः । अर्णः । चमूषु । सोमः । अस्मभ्यम् । काम्यम् । बृहन्तम् । रयिम् । ददातु वीरवन्तम् उग्रम् ॥ ९.९७.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 21
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे प्रकाशमय परमात्मन् ! (नः) अस्माकं (देववीतिं, अभि) यज्ञं प्रति (परि स्रव) ज्ञानवृष्टिं करोतु (चमूषु) मत्क्षेत्ररूपयज्ञे (नभः) आकाशात् (अर्णः) जलवृष्टिं करोतु (सोमः) सौम्यो भवान् (अस्मभ्यं) अम्सदर्थं (काम्यं) कमनीयं (बृहन्तं) महत् (रयिं) धनं (ददातु) प्रयच्छतु (उग्रं, वीरवन्तं) तच्च पुष्टवीरवदपि स्यात् ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (नः) हमारे (देववीतिम्, अभि) यज्ञ के प्रति (परिस्रव) ज्ञान की वृष्टि करें और (चमूषु) हमारे क्षेत्ररूप यज्ञों में (नभः) नभोमण्डल से (अर्णः) जल की वृष्टि करें, (सोमः) सोमगुणसम्पन्न आप (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (काम्यम्) कमनीय (बृहन्तम्) बड़े (रयिम्) धन को (ददातु) दें और वह धन (उग्रं वीरवन्तम्) उग्र वीरों की सम्पत्तिवाला हो ॥२१॥

    भावार्थ

    जो लोग अनन्य भक्ति से ईश्वर की उपासना करते हैं, ईश्वर उनको अनन्त प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करता है ॥२१॥

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    विषय

    उत्तम शासक विद्वान् के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (सोम) विद्वन् ! हे उत्तम उपदेष्टा ! हे तेजस्विन् ! त् (नः) हमारे (देव-वीतिम् अभि) शुभ गुणों और विद्वानों के प्राप्ति योग्य कार्य, यज्ञ आदि को (परि स्रव) प्राप्त हो। वह (सोमः) उत्तम प्रशासक (चमूषु) सैन्यों पर वशी, सेनापति के तुल्य (चमूषु) प्राणों पर वशी होकर (नभः अर्णः) मेघ आकाश से जैसे जल को देता है उसी प्रकार वह हमें (नभः) उत्तम प्रबन्ध, मर्यादा वा सूर्यवत् उत्तम सम्बन्ध से जलवत् शान्तिदायक ज्ञान और (काम्यम्) कामना करने योग्य (बृहन्तम्) बड़ा भारी, (वीरवन्तम्) वीर पुरुषों से युक्त (उग्रम्) उग्र, दुष्टों को दण्ड देने वाला (रयिम्) बल वीर्य, तेज, धन (ददातु) प्रदान करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दिव्य जीवन व उत्कृष्ट ऐश्वर्य

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = सोम! (एवा) = इस प्रकार (नः) = हमारी (देववीतिम्) = दिव्यगुणों की प्राप्ति का (अभि) = लक्ष्य करके (चमूषु) = इन शरीर रूप पात्रों में (नभः अर्णः) = द्युलोक के जल को, मस्तिष्क रूप द्युलोक के ज्ञानजल को (परिस्रव) = प्राप्त करा । सोम ही सुरक्षित होकर ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और ज्ञान को प्राप्त कराके हमारे जीवन में दिव्यगुणों की उत्पत्ति का कारण बनता है । (सोमः) = शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ सोम (अस्मभ्यम्) = हमारे लिये (रयिं ददातु) = उस ऐश्वर्य को प्राप्त कराये जो (काम्यम्) = वस्तुत: चाहने योग्य है, (बृहन्तम्) = वृद्धि का कारण बनता है, (वीरवन्तम्) = वीर सन्तानों वाला व (उग्रम्) = तेजस्वी है । सोमी पुरुष का धन उसके जीवन में अवाञ्छनीय प्रभावों को उत्पन्न नहीं करता, यह उसके सन्तानों को भी विलास में फँसानेवाला नहीं होता। यह सोमी पुरुष स्वयं भी धन का स्वामी, न कि दास, होता हुआ उग्र व तेजस्वी बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम ज्ञान को प्राप्त कराके हमें दिव्य जीवन वाला बनाता है तथा उत्कृष्ट ऐश्वर्य को यह प्राप्त करानेवाला होता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Thus O self-refulgent Indu, spirit of divine peace, power, beauty and prosperity, let there be a shower of light and knowledge on us in yajna. Let showers of rain fill our tanks, lakes and rivers and fructify our fields and gardens. May Soma give us wealth, honour and excellence of the highest order of our choice with mighty brave heroes.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक अनन्य भक्तीने ईश्वराची उपासना करतात. ईश्वर त्यांना अनंत प्रकारचे ऐश्वर्य प्रदान करतो. ॥२१॥

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