ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 45
सोम॑: सु॒तो धार॒यात्यो॒ न हित्वा॒ सिन्धु॒र्न नि॒म्नम॒भि वा॒ज्य॑क्षाः । आ योनिं॒ वन्य॑मसदत्पुना॒नः समिन्दु॒र्गोभि॑रसर॒त्सम॒द्भिः ॥
स्वर सहित पद पाठसोमः॑ । सु॒तः । धार॑या । अत्यः॑ । न । हित्वा॑ । सिन्धुः॑ । न । नि॒म्नम् । अ॒भि । वा॒जी । अ॒क्षा॒रिति॑ । आ । योनि॑म् । वन्य॑म् । अ॒स॒द॒त् । पु॒ना॒नः । सम् । इन्दुः॑ । गोभिः॑ । अ॒स॒र॒त् । सम् । अ॒त्ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोम: सुतो धारयात्यो न हित्वा सिन्धुर्न निम्नमभि वाज्यक्षाः । आ योनिं वन्यमसदत्पुनानः समिन्दुर्गोभिरसरत्समद्भिः ॥
स्वर रहित पद पाठसोमः । सुतः । धारया । अत्यः । न । हित्वा । सिन्धुः । न । निम्नम् । अभि । वाजी । अक्षारिति । आ । योनिम् । वन्यम् । असदत् । पुनानः । सम् । इन्दुः । गोभिः । असरत् । सम् । अत्ऽभिः ॥ ९.९७.४५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 45
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोमः) सर्वोत्पादकः (सुतः) स्वयंसिद्धः परमात्मा (धारया) स्वशक्त्या (अत्यः, न) विद्युदिव (हित्वा) गतिशीलो भवान् (सिन्धुः, न) स्यन्दनशीला नदीव (निम्नं) अधस्तात् (वाजी) बलाधिकः (वन्यं) भक्तियुक्तं (योनिं) अन्तःकरणं (पुनानः) पावयन् (असदत्) तिष्ठति (इन्दुः) प्रकाशस्वरूपः सः (गोभिः) इन्द्रियवृत्तिभिः (सं, अद्भिः) प्रेमप्रवाहेण अन्तःकरणसंसिञ्चनशीलाभिः (सं, असरत्) ज्ञानरूपेण व्याप्नोति (अभि, अक्षाः) भक्तान् रक्षति च ॥४५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोमः) सर्वोत्पादक (सुतः) स्वयंसिद्ध जो परमात्मा है, वह (धारया) अपनी स्वतःसिद्ध शक्तियों के द्वारा (अत्यः) विद्युत् के समान (सम्) भली प्रकार (हित्वा) गतिशील होता हुआ (सिन्धुः) स्यन्दनशील नदी के (न) समान (निम्नम्) नीचे की ओर (वाजी) बलस्वरूप उक्त परमात्मा (वन्यम्) भक्तियुक्त (योनिम्) अन्तःकरणरूप स्थान को (पुनानः) पवित्र करता हुआ (असदत्) स्थिर होता है, वह (इन्दुः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा भक्तों के प्रति (अभ्यक्षाः) रक्षा करता है (गोभिः) इन्द्रियों की वृत्तियों द्वारा (अद्भिः) जो प्रेम के प्रवाह से अन्तःकरण को सिञ्चित करती हैं, उनसे (समसरत्) ज्ञानरूप से व्याप्त होता है ॥४५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में रूपकालङ्कार से यह वर्णन किया है कि परमात्मा नम्र स्वभाववाले पुरुषों को निम्नभूमि के समान सुसिञ्चित करता है ॥४५॥
विषय
विद्रान् शासक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(सुतः अत्यः धारया न) प्रेरित अश्व जिस प्रकार धारा गति से जाता है उसी प्रकार (सोमः) उत्तम शास्ता, विद्वान् भी (सुतः) अभिषिक्त होकर (धारया) धारणशक्ति और उत्तम वाणी से आगे बढ़े। (वाजी सिन्धुः न निम्नम्) वेगवान् नद जिस प्रकार स्वभाव से नीचे देश में बह जाता है उसी प्रकार (वाजी) ज्ञानैश्वर्यवान् पुरुष (हित्वा) धारणावान् होकर, अन्यों को बढ़ाता हुआ, (निम्नम् अभि अक्षाः) अपने आगे निम्न, झुके अधीन राष्ट्र को प्राप्त होता है। वह (वन्यं योनिम् आ असदत्) वन्य, सेव्य, तेजोमय गृहवत् आश्रम पर विराजे। ज्ञानी पुरुष जिस प्रकार वनस्थ आश्रम में प्रतिष्ठित होता है वैसे ही तेजस्वी पुरुष वन = सैन्य दल के ऊपर सभापत्य पद पर विराजे। (पुनानः) अभिषिक्त होकर (गोभिः अद्भिः सम असरत्) उत्तम वाणियों और आप्त जनों सहित अच्छी प्रकार आगे बढ़े। अध्यात्म में—आत्मा तेजोमय पद को प्राप्त हो, इन्द्रियों और प्राणों सहित आगे बढ़े।
टिप्पणी
वन्यं योनिं—आत्मा ह तद् वनं तद् वनमित्युपासितव्यम् (केन उप०)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
गोभिः अभिः समसरत्
पदार्थ
(सोमः) = सोम (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ (धारया) = धारणशक्ति के द्वारा (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समान (हित्वा) = गतिशील होता है। यह सोम हमें शक्ति सम्पन्न बनाकर गतिशील बनाता है । (सिन्धुः न) = जैसे एक नदी (निम्नम्) = निम्न प्रदेश की ओर जाती है, इसी प्रकार (वाजी) = यह शक्तिशाली सोम (अभि अक्षा:) = हमारे शरीर में क्षरित होता है। शरीर के अन्दर व्याप्त होता हुआ यह सोम अंग-प्रत्यंग को शक्तिशाली बनाता है, और इस प्रकार हमें गतिशील करता है । (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ यह सोम (वन्यम्) = उपासना में उत्तम [वन्- संभजन] (योनिम्) = शरीरगृह में (आ असदत्) = आसीन होता है। प्रभु की उपासना के होने पर वासनाओं के विनाश से सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है । (इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के साथ (सम् असरत्) = गतिवाला होता है, तथा (अद्भिः सम्) = कर्मों के साथ गतिवाला होता है । सोमरक्षण से ज्ञान की भी वृद्धि होती है, तथा क्रियाशीलता की भी ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें ज्ञान व क्रिया को शक्ति से प्राप्त कराता है। सोम का रक्षण प्रभु उपासना द्वारा होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, self-existent Spirit of creativity realised and exalted by humanity, inspiring and energising like radiations of light, rushing down in streams like a flood, pray come with the glory of victory. May the spirit of Soma, pure and purifying, flow and bless the loved heart core of the soul. May the spirit, bright and illuminating, flow with showers of knowledge and enlightenment and beatify us with the soothing waters of peace for the mind, senses and the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात रूपकालंकाराने हे वर्णन केलेले आहे की परमात्मा नम्र स्वभावयुक्त पुरुषांना निम्न भूमीप्रमाणे सुसिञ्चित करतो. ॥४५॥
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