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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 49
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि वा॒युं वी॒त्य॑र्षा गृणा॒नो॒३॒॑ऽभि मि॒त्रावरु॑णा पू॒यमा॑नः । अ॒भी नरं॑ धी॒जव॑नं रथे॒ष्ठाम॒भीन्द्रं॒ वृष॑णं॒ वज्र॑बाहुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । वा॒युम् । वी॒ती । अ॒र्ष॒ । गृ॒णा॒नः । अ॒भि । मि॒त्रावरु॑णा । पू॒यमा॑नः । अ॒भि । नर॑म् । धी॒ऽजव॑नम् । र॒थे॒ऽस्थाम् । अ॒भि । इन्द्र॑म् । वृष॑णम् । वज्र॑ऽबाहुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि वायुं वीत्यर्षा गृणानो३ऽभि मित्रावरुणा पूयमानः । अभी नरं धीजवनं रथेष्ठामभीन्द्रं वृषणं वज्रबाहुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । वायुम् । वीती । अर्ष । गृणानः । अभि । मित्रावरुणा । पूयमानः । अभि । नरम् । धीऽजवनम् । रथेऽस्थाम् । अभि । इन्द्रम् । वृषणम् । वज्रऽबाहुम् ॥ ९.९७.४९

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 49
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! (वायुं) कर्मयोगिनं (वीती) तृप्तये (अभि, अर्ष) प्राप्नोतु (गृणानः) उपास्यमानश्च (मित्रावरुणा) अध्यापकोपदेशकान् (अभि, अर्ष) प्राप्नोतु (पूयमानः) पावयन् भवान् (धीजवनं, नरं) कर्मयोगिपुरुषं (अभि, अर्ष) प्राप्नोतु (रथेष्ठां) कर्मगत्यां स्थितं च प्राप्नोतु (वज्रबाहुं) दृढभुजं (वृषणं) बलिनं (इन्द्रं) योधं च प्राप्नोतु ॥४९॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप (वायुम्) ज्ञानयोगी की (वीती) तृप्ति के लिये (अभ्यर्ष) प्राप्त हों (गृणानः) उपास्यमान आप (मित्रावरुणा) अध्यापक और उपदेशक को (अभ्यर्ष) प्राप्त हों, (पूयमानः) सबको पवित्र करते हुए आप (धीजवनं, नरम्) कर्मयोगी पुरुष को (अभ्यर्ष) प्राप्त हों, (रथेष्ठाम्) जो कर्मों की गति में स्थिर हैं, उनको प्राप्त हों, (वज्रबाहुम्) वज्र के समान भुजाओंवाले (इन्द्रं) योद्धा पुरुष को (वृषणम्) जो बलस्वरूप है, उसको प्राप्त हों ॥४९॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा की प्राप्ति के पात्र ज्ञानयोगी, कर्मयोगी और शूरवीरों का वर्णन किया है। तात्पर्य यह है कि जो पुरुष परमात्मा की कृपा का पात्र बनना चाहे, उसे स्वयं उद्योगी वा कर्मयोगी अथवा शूरवीर बनना चाहिये, क्योंकि परमात्मा स्वयं बलस्वरूप है, इसलिये जो बलिष्ठ पुरुष हैं, वे उसकी कृपा का पात्र बन सकते हैं, अन्य नहीं ॥४९॥

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    विषय

    उसके कण्टक-शोधन का कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे शास्तः ! तू (गृणानः) स्तुति किया जाता हुआ, (वीत्या) अपनी रक्षण शक्ति और तेज से (वायुम् अभि अर्ष) वायु के तुल्य, सर्वप्राण-प्रद पुरुष को प्राप्त कर (पूयमानः) अभिषिक्त होकर (मित्रा वरुणा) स्नेहवान् एवं श्रेष्ठ जनों को (अभि अर्ष) प्राप्त कर। (रथे स्थाम्) रथ पर स्थिर (धी-जवनम्) बुद्धि या वाणी द्वारा वेग से जाने वाले, (नरम्) उत्तम नायक पद को (अभि अर्ष) प्राप्त कर और (वज्र-बाहुम्) बलवीर्य को बाहुओं में धारण करने वाले (वृषणं इन्द्रम् अभिअर्ष) सब सुखवर्षक तेजस्वी, रम्य पद को प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोम का पान कौन-कौन करते हैं ?

    पदार्थ

    हे सोम ! (गृणानः) = स्तुति किया जाता हुआ तू (वायुं अभिः) = क्रियाशील पुरुष के प्रति (वीती अर्षा) = पान के लिये गतिवाला हो । क्रियाशील पुरुष सोम का रक्षण करनेवाला बनता है । (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (मित्रावरुणा अभि) = मित्र और वरुण की ओर प्राप्त हो । सबके प्रति स्नेह व निर्देषता के भाव वाला व्यक्ति तेरा पान करे। (धीजवनम्) = बुद्धि के वेग वाले अर्थात् बुद्धि को खूब बढ़ानेवाले (रथेष्ठाम्) = शरीररथ के अधिष्ठाता बननेवाले (नरम्) = उन्नतिपथ पर चलनेवाले मनुष्य को तू (अभि) = [अर्षा] प्राप्त हो। यह 'धीजवनं रथेष्ठा नर' तेरा पान करनेवाला हो । तू (इन्द्रं) = उस जितेन्द्रिय पुरुष को (अभि) [अर्ष] = प्राप्त हो, जो कि (वृषणम्) = अपने अन्दर शक्ति का सेचन करता है, और अतएव (वज्रबाहुम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को हाथ में लिये हुए है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम का पान 'क्रियाशील [वायु], स्नेह की भावना वाला [मित्र] व द्वेष का निवारण करनेवाला [वरुण], बुद्धिपूर्वक कार्य करनेवाला [ धीजवन], जितेन्द्रिय [इन्द्र] ' पुरुष ही करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Soma, pure and purifying, resounding across the spaces, flow, sung and celebrated, and bring peace, progress and fulfilment to humanity, to the man of vibrant enthusiasm, to the man of love and judgement. To humanity, bring readiness of intellect and understanding, firm and undisturbed yet dynamic like a master of the chariot sitting at peace, unmoving and undisturbed, while the chariot may be speeding at the velocity of light. So also flow to Indra, master ruler of the arms of thunder, virile and generous, mighty yet calm.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमात्म्याच्या प्राप्तीयोग्य ज्ञानयोगी व कर्मयोगी व शूरवीरांचे वर्णन केलेले आहे. तात्पर्य हे की ज्या पुरुषाला परमात्म्याच्या कृपेचे पात्र बनावयाचे असेल त्याला स्वत: उद्योगी किंवा कर्मयोगी अथवा शूरवीर बनले पाहिजे. कारण परमात्मा स्वत: बलस्वरूप आहे त्यासाठी जे बलिष्ठ पुरुष आहेत ते त्याच्या कृपेचे पात्र बनू शकतात, इतर नव्हे. ॥४९॥

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