ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 14
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
र॒साय्य॒: पय॑सा॒ पिन्व॑मान ई॒रय॑न्नेषि॒ मधु॑मन्तमं॒शुम् । पव॑मानः संत॒निमे॑षि कृ॒ण्वन्निन्द्रा॑य सोम परिषि॒च्यमा॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठर॒साय्यः॑ । पय॑सा । पिन्व॑मानः । ई॒रय॑न् । ए॒षि॒ । मधु॑ऽमन्तम् । अं॒शुम् । पव॑मानः । स॒म्ऽत॒निम् । ए॒षि॒ । कृ॒ण्वन् । इन्द्रा॑य । सो॒म॒ । प॒रि॒ऽसि॒च्यमा॑नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
रसाय्य: पयसा पिन्वमान ईरयन्नेषि मधुमन्तमंशुम् । पवमानः संतनिमेषि कृण्वन्निन्द्राय सोम परिषिच्यमानः ॥
स्वर रहित पद पाठरसाय्यः । पयसा । पिन्वमानः । ईरयन् । एषि । मधुऽमन्तम् । अंशुम् । पवमानः । सम्ऽतनिम् । एषि । कृण्वन् । इन्द्राय । सोम । परिऽसिच्यमानः ॥ ९.९७.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 14
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) उपास्यमानो भवान् (सन्तनिं) अभ्युदयं (कृण्वन्) विस्तृण्वन् (इन्द्राय, एषि) कर्म्मयोगिनं प्राप्नोति (पवमानः) सर्वस्य पावयिता भवान् (पयसा, रसाय्यः) रसेन परिपूर्णः (पिन्वानः) विविधाभ्युदयेन वृद्धिं प्राप्तो भवान् (मधुमन्तं, अंशुं) माधुर्ययुक्ताष्टसिद्धीः (ईरयन्) प्रेरयन् (एषि) प्राप्नोति ॥१४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (परिषिच्यमानः) उपास्यमान आप (सन्तनिम्) अभ्युदय का (कृण्वन्) विस्तार करते हुए (इन्द्राय) कर्मयोगी के लिये (एषि) प्राप्त होते हैं। (पवमानः) सबको पवित्र करनेवाले आप (पयसा, रसाय्यः) आनन्दस्वरूप हैं। सब प्रकार के अभ्युदयों से (पिन्वानः) वृद्धि को प्राप्त आप (मधुमन्तमंशुम्) माधुर्य्ययुक्त अष्ट सिष्टियों को (ईरयन्) प्रेरणा करते हुए (एषि) प्राप्त होते हैं ॥१४॥
भावार्थ
अभ्युदय और निःश्रेयस का प्रदाता एकमात्र परमात्मा ही है, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि उसी परमात्मा की दृढ़ भक्ति से सब प्रकार के ऐश्वर्य्य और मुक्ति का लाभ करे ॥१४॥
विषय
अभिषेक योग्य विद्वान् उपदेष्टा, सत्कारयोग्य शासक का वर्णन।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासक ! उपदेष्टः ! विद्वन् ! तू (रसाय्यः) ज्ञानरस से तृप्त (पयसा पिन्वमानः) परिपोषक जल से सेवित, आर्द्रित वा स्नात होकर (मधुमन्तं अंशुम्) मधु से युक्त खाने या सेवन मात्र करने से शान्तिदायक मधुपर्क को प्राप्त करता वा उसी प्रकार मधुर शान्तिदायक वचनों को अन्य के प्रति (ईरयन्) प्राप्त करता हुआ (एषि) प्राप्त होता है। और तू (पवमानः) आगे बढ़ता हुआ, (इन्द्राय परि सिच्यमानः) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त राज्य पद के लिये अभिषिक्त होता हुआ (सन्तनिं कृण्वन्) संतानवत् विस्तार को प्राप्त होने वाले प्रजा जन को (कृण्वन्) अपनाता हुआ (एषि) प्राप्त हो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
रसाय्यः पवमानः
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिषिच्यमानः) = शरीर के अंग-प्रत्यंग में सिक्त होता हुआ तू (रसाय्यः) = जीवन को रसमय बनाता है । (पयसा) = आप्यायन शक्ति से, वर्धन शक्ति से (पिन्वमानः) = शरीर को सिक्त करता हुआ (मधुमन्तम्) = माधुर्ययुक्त (अंशुम्) = प्रकाश की किरण को (ईरयन्) = प्रेरित करता हुआ तू (एषि) = प्राप्त होता है । सोम शरीर में सुरक्षित होने पर जीवन को रसमय-वृद्धशक्ति वाला व माधुर्ययुक्त प्रकाश वाला बनाता है। हे सोम ! (पवमानः) = पवित्र करता हुआ तू (सन्तनिं कृण्वन्) = सब शक्तियों के विस्तार को करता हुआ (एषि) = प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम जीवन को रसमय, शक्ति सम्पन्न, प्रकाशमय व मधुर बनाता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, stream of divine joy exalted with songs of praise, inspiring honey sweets of vital growth and enlightenment, you go forward, pure and purifying, and release continuous showers of ecstasy for the soul for its grandeur and glory when you are honoured and adored by the celebrants.
मराठी (1)
भावार्थ
अभ्युदय व नि:श्रेयसचा प्रदाता एकमेव परमात्माच आहे. यासाठी माणसाने त्याच परमात्म्याकडून दृढ भक्तीने, सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य व मुक्ती प्राप्त करावी. ॥१४॥
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