ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 58
त्वया॑ व॒यं पव॑मानेन सोम॒ भरे॑ कृ॒तं वि चि॑नुयाम॒ शश्व॑त् । तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । व॒यम् । पव॑मानेन । सो॒म॒ । भरे॑ । कृ॒तम् । वि । चि॒नु॒या॒म॒ । शश्व॑त् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया वयं पवमानेन सोम भरे कृतं वि चिनुयाम शश्वत् । तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । वयम् । पवमानेन । सोम । भरे । कृतम् । वि । चिनुयाम । शश्वत् । तत् । नः । मित्रः । वरुणः । ममहन्ताम् । अदितिः । सिन्धुः । पृथिवी । उत । द्यौः ॥ ९.९७.५८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 58
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! (पवमानेन, त्वया) सर्वपावकेन भवता सहायेन (वयं, भरे) वयमज्ञानवृत्तिनाशकसंग्रामे (शश्वत्) सदैव (कृतं) सत्कर्म (वि, चिनुयाम) सञ्चितं करवाम (तत्) तस्मात् (मित्रः, वरुणः) अध्यापक उपदेशकश्च (अदितिः) अज्ञाननाशको विद्वान् (सिन्धुः) समुद्रः (पृथिवी) भूः (उत, द्यौः) तथा द्युलोक एते सर्वेऽपि (मामहन्तां) मदनुकूलाः सन्तः मां समुन्नयन्तु ॥५८॥ इति सप्तनवतितमं सूक्तं द्वाविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (पवमानेन) पवित्र करनेवाले (त्वया) आपकी सहायता से (वयम्) हम लोग (भरे) अज्ञान की वृत्तियों को नाश करनेवाले संग्राम में (कृतम्) सत्कर्मों का (शश्वत्) निरन्तर (विचिनुयाम) संग्रह करें, (तत्) इसलिये (मित्रः, वरुणः) अध्यापक और उपदेशक, (अदितिः) अज्ञान के खण्डन करनेवाला विद्वान् (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथिवी (उत) और (द्यौः) द्युलोक ये सब पदार्थ (मामहन्ताम्) मेरे अनुकूल होकर मुझे पूज्य बनाएँ ॥५८॥
भावार्थ
जो लोग सदाचारी अध्यापकों वा उपदेशकों द्वारा परमात्मज्ञान की शिक्षा पाते हैं, वे अवश्यमेव अज्ञान का नाश करके ज्ञानरूपी प्रदीप से प्रदीप्त होते हैं ॥५८॥ यह ९७ वाँ सूक्त और २२ वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
परमानन्द रस वाले प्रभु की उपासना।
भावार्थ
हे (सोम) सर्वशासक ! (पवमानेन त्वया) परम पावन वा अभिषिक्त तुझ से (भरे) इस महान् संग्राम में (वयम्) हम (शश्वत्) सदा (कृते वि चिनुयाम) अपना किया ही विविध प्रकार से प्राप्त करते हैं (तत्) वही (नः) हमें (मित्रः वरुणः अदितिः सिन्धुः उत पृथिवी उत द्यौः) वायु, जल, भूमि, नदी, पृथिवी और सूर्य ये पदार्थ और मित्र, श्रेष्ठ जन, माता, पिता, पुत्र, प्राण, भूमि सूर्यवत् प्रजा जन और राजा ये सब (मामहन्ताम्) मुझे प्रदान करें। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
भरे कृतं वि चिनुयाम शश्वत्
पदार्थ
हे (सोम) = वीर्य ! (पवमानेन) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले (त्वया) = तेरे से (वयम्) = हम (भरे) = इस जीवन संग्राम में (शश्वत्) = बहुत प्रकार के (कृतम्) = पुण्य को (विचिनुयाम) = संचित करें । जीवन संग्राम में शत्रुओं को जीतकर पुण्यशाली हों । (मित्रः) = स्नेह की देवता, (वरुणः) = द्वेष निवारण की देवता, (अदितिः) = स्वास्थ्य की देवता व व्रतों को खण्डित न करने की देवता [ व्रतपालन का भाव], (सिन्धुः) = [स्यन्दते] निरन्तर कार्यों में प्रवाहित रहने की देवता, पृथिवी शक्तियों की विस्तार की देवता (उक्त) = और (द्यौः) = प्रकाश की देवता ये सब (नः) = हमारे (तत्) = मन्त्र के पूर्वार्ध में कहे गये सोमरक्षण द्वारा जीवन संग्राम में बहुविध पुण्य के चयन के संकल्प को (मामहन्ताम्) = आदृत करें। इन देवों की आराधना से हमारा यह संकल्प पूर्ण हो । सोमरक्षण में 'स्नेह, निर्देषता, व्रतपालन, निरन्तर क्रियाशीलता, शक्ति विस्तार व ज्ञान का प्रकाश' साधन बनते हैं। इनके द्वारा सोमरक्षण करते हुए हम संग्राम में विजयी बनें।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्नेह आदि के अनुवर्तन से सोम का रक्षण करते हुए जीवन संग्राम में पुण्य का ही संचय करें। इस जीवन संग्राम को सम्यक् चलानेवाला 'अम्बरीष' [war battle] ही अगले सूक्त का ऋषि है, यह मूर्तिमान् युद्ध ही है। यह 'वार्षागिर' है ज्ञान की वाणियों द्वारा सर्वत्र ज्ञान जल का सेचन करता है। इसीलिये 'ऋजिश्वा' ऋजुमार्ग से आगे बढ़नेवाला ' भरद्वाज' अपने में शक्ति को भरनेवाला है। यह 'पवमान सोम' का शंसन करता है-
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, spirit of divine peace, power, beauty and glory, in our battle for self-control and divine realisation, let us always choose and abide by paths and performances shown and accomplished by you, pure and purifying power of divinity. And that resolve of ours, we pray, may Mitra, the sun, Varuna, the ocean, Aditi, mother Infinity, Sindhu, divine space and fluent vapour, earth and heaven, help us achieve with credit.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक सदाचारी अध्यापक किंवा उपदेशकांद्वारे परमात्म ज्ञानाचे शिक्षण घेतात ते अज्ञानाचा नाश करून ज्ञानरूपी प्रदीपाने प्रदीप्त होतात. ॥५८॥
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