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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 25
    ऋषिः - मृळीको वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अर्वाँ॑ इव॒ श्रव॑से सा॒तिमच्छेन्द्र॑स्य वा॒योर॒भि वी॒तिम॑र्ष । स न॑: स॒हस्रा॑ बृह॒तीरिषो॑ दा॒ भवा॑ सोम द्रविणो॒वित्पु॑ना॒नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर्वा॑न्ऽइव । श्रव॑से । सा॒तिम् । अच्छ॑ । इन्द्र॑स्य । वा॒योः । अ॒भि । वी॒तिम् । अ॒र्ष॒ । सः । नः॒ । स॒हस्रा॑ । बृ॒ह॒तीः । इषः॑ । दाः॒ । भव॑ । सो॒म॒ । द्र॒वि॒णः॒ऽवित् । पु॒ना॒नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्वाँ इव श्रवसे सातिमच्छेन्द्रस्य वायोरभि वीतिमर्ष । स न: सहस्रा बृहतीरिषो दा भवा सोम द्रविणोवित्पुनानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्वान्ऽइव । श्रवसे । सातिम् । अच्छ । इन्द्रस्य । वायोः । अभि । वीतिम् । अर्ष । सः । नः । सहस्रा । बृहतीः । इषः । दाः । भव । सोम । द्रविणःऽवित् । पुनानः ॥ ९.९७.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 25
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (सहस्रा) सहस्रधा (बृहतीः) महतां (इषः) ऐश्वर्याणां (दाः) दातास्ति यतः (द्रविणोवित्) भवान्सर्वैश्वर्यज्ञः अतः (पुनानः) ऐश्वर्येण पावयन् (अर्वा, इव) गतिशीलविद्युदिव (श्रवसे) ऐश्वर्याय (सातिं, अच्छ) यज्ञं प्रयच्छतु (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः (वायोः, अभि) ज्ञानयोगिनश्च (वीतिं, अर्ष) ज्ञानं ददातु (सः) एवंभूतो भवान् (नः) ज्ञानप्रदानेन मां पावयतु ॥२५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमात्मन् ! आप (सहस्रा) सहस्रों प्रकार के (बृहतीः) बड़े-बड़े (इषः) ऐश्वर्य्यों के (दाः) देनेवाले (भव) हो, क्योंकि आप (द्रविणोवित्) सबप्रकार के ऐश्वर्य्यों के जाननेवाले हैं, इसलिये (पुनानः) ऐश्वर्य्यों द्वारा पवित्र करते हुए (अर्वा इव) गतिशील विद्युत् के समान (श्रवसे) ऐश्वर्य्य के लिये (सातिम्) यज्ञ को (अच्छ) हमारे लिये दें और (इन्द्रस्य) कर्मयोगी को और (वायोरभि) ज्ञानयोगी को (वीतिम्) ज्ञान (अर्ष) दें (सः) उक्तगुणसम्पन्न आप (नः) हमको ज्ञानप्रदान से पवित्र करें ॥२५॥

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानयोगी को नाना प्रकार के ऐश्वर्य्य प्रदान करता है, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह ज्ञानयोग का सम्पादन करे ॥२५॥

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    विषय

    उत्तम शासक विद्वान् के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (श्रवसे अर्वान् इव) अन्न के लिये जिस प्रकार ‘अश्व’ वा यश वा धन के लिये जिस प्रकार अश्वारोही (स-तिम् अच्छ) युद्ध के प्रति जाता है, हे विद्वन् ! वा ज्ञानार्थिन् ! तू भी (श्रवसे) श्रवण करने योग्य वेद ज्ञान को प्राप्त करने के लिये (इन्द्रस्य सातिम् अभि अच्छ) उत्तम ज्ञानद्रष्टा तत्वदर्शी पुरुष की दी शिक्षा को प्राप्त कर। तू (वायोः नीतिम् अभि अर्ष) ज्ञानप्रद गुरु की ज्ञानदीप्ति को प्राप्त कर। (सः) वह (नः) हमें (सहस्राः बृहतीः इषः) हज़ारों बड़ी २ अन्न सम्पदाएं और ज्ञान वा काम्य पदार्थों की वृष्टियां (दाः) देवे। हे (सोम) विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! तू (पुनानः) अभिषिक्त, प्रतिष्ठित होता हुआ (नः) हमारे लिये (द्रविण:-वित्) धनैश्वर्य का प्राप्त कराने वाला (भव) हो ॥ इति पञ्चदशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'द्रविणोवित्' सोम

    पदार्थ

    हे सोम ! (इव) = जैसे युद्ध में (श्रवसे) = विजय के यश के लिये (अर्वान्) = घोड़ों को प्राप्त करते हैं, इसी प्रकार (सातिम्) = प्रभु प्राप्ति का (अच्छ) = लक्ष्य करके (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष के तथा (वायो:) = गतिशील पुरुष के (वीतिम्) = ज्ञान को (अधि अर्ष) = तू प्राप्त हो । अर्थात् जितेन्द्रिय व गतिशील पुरुष के द्वारा तेरा शरीर में ही व्यापन किया जाये जिससे वे इन्द्र व वायु प्रभु को प्राप्त कर सकें। शरीर में सोमरक्षण का ही अन्तिम परिणाम यह है कि ज्ञानाग्नि दीप्त होकर व बुद्धि सूक्ष्म होकर प्रभु का ग्रहण होता है। हे सोम ! (सः) = वह तू (नः) = हमारे लिये (सहस्रा) = हजारों (बृहती:) = बुद्धि की कारणभूत (इषः) = प्रेरणाओं को (दाः) = दीजिये । सोमरक्षण से पवित्र हृदय होकर हम प्रभु की प्रेरणा को सुननेवाले बनें। हे (सोम) = वीर्य ! तू (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (द्रविणोवित्) = सब अन्नमय आदि कोशों के ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाला (भवा) = हो । सोमरक्षण से हमारे सब कोश (क्रमशः) = 'तेज, वीर्य, बल व ओज, ज्ञान व सहनशक्ति' से परिपूर्ण होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जितेन्द्रिय व गतिशील पुरुष सोम का रक्षण करते हैं। यह सोम प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है, हमारे हृदयों में इसके रक्षण से प्रभु प्रेरणा सुन पड़ती है, यह सब कोशों को ऐश्वर्ययुक्त करता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Vibrate and flow for the good of Indra, the soul in search of power, and for Vayu, the vibrant seeker of Karma, radiating like energy itself for the sake of honour and success in yajna. O Soma, knowing and commanding wealth and power, pure and purifying, be the giver of a thousand powers of sustenance, energy and enlightenment for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्ञानयोग्याला नाना प्रकारचे ऐश्वर्य प्रदान करतो त्यासाठी माणसाने ज्ञानयोगाचे संपादन करावे. ॥२५॥

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