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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 50
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि वस्त्रा॑ सुवस॒नान्य॑र्षा॒भि धे॒नूः सु॒दुघा॑: पू॒यमा॑नः । अ॒भि च॒न्द्रा भर्त॑वे नो॒ हिर॑ण्या॒भ्यश्वा॑न्र॒थिनो॑ देव सोम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । वस्त्रा॑ । सु॒ऽव॒स॒नानि॑ । अ॒र्ष॒ । अ॒भि । धे॒नूः । सु॒ऽदुघाः॑ । पू॒यमा॑नः । अ॒भि । च॒न्द्रा । भर्त॑वे । नः॒ । हिर॑ण्या । अ॒भि । अश्वा॑न् । र॒थिनः॑ । दे॒व॒ । सो॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि वस्त्रा सुवसनान्यर्षाभि धेनूः सुदुघा: पूयमानः । अभि चन्द्रा भर्तवे नो हिरण्याभ्यश्वान्रथिनो देव सोम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । वस्त्रा । सुऽवसनानि । अर्ष । अभि । धेनूः । सुऽदुघाः । पूयमानः । अभि । चन्द्रा । भर्तवे । नः । हिरण्या । अभि । अश्वान् । रथिनः । देव । सोम ॥ ९.९७.५०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 50
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम, देव) हे दिव्यस्वरूप भगवन् ! (नः, भर्तवे) अस्मत्तृप्तये (वस्त्रा, सुवसनानि) स्वाच्छाद्यवस्त्राणि (अभि, अर्ष) प्रयच्छतु (पूयमानः) सर्वान् पावयन् (सुदुघाः, धेनूः) स्वर्था वाचः (अभि, अर्ष) ददातु (चन्द्रा, हिरण्या) आह्लादकधनं च (अभि, अर्ष) ददातु (रथिनः) वेगवतः (अश्वान्) वाहान् (अभि, अर्ष) मह्यं ददातु ॥५०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वोत्पादक (देव) दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (नः, भर्तवे) हमारी तृप्ति के लिये (वस्त्रा, सुवसनानि) शोभन वस्त्र (अभ्यर्ष) दें (पूयमानः) सबको पवित्र हुए आप (सुदुघाः) सुन्दर अर्थों से परिपूर्ण (धेनूः) वाणियें (अभ्यर्ष) हमको दें, (चन्द्रा, हिरण्या) आह्लादक धन आप (नः) हमको (अभ्यर्ष) दें, (रथिनः) वेगवाले (अश्वान्) घोड़े (नः) हमको (अभ्यर्ष) दें ॥५०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में पुनरपि ऐश्वर्य प्राप्ति की प्रार्थना है कि हे परमात्मन् ! आप हमको ऐश्वर्यशाली बनने के लिये ऐश्वर्य्य प्रदान करें। पुनः-पुनः ऐश्वर्य की प्रार्थना करना अर्थपुनरुक्ति नहीं, किन्तु अभ्यास अर्थात् दृढ़ता के लिये उपदेश हैं, जैसा कि “आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः” इत्यादिकों में बार-बार चित्तवृत्ति का लगाना परमात्मा में कथन किया गया है, इसी प्रकार यहाँ भी दृढ़ता के लिये उसी अर्थ का पुनः-पुनः कथन है। जो अज्ञानियों को वेद में पुनरुक्ति दोष प्रतीत होता है, ऐसा नहीं है। वेद में पुनरुक्ति दोष नहीं, यह केवल अज्ञानियों की भ्रान्ति है ॥५०॥

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    विषय

    प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे देव सोम ! तेजस्विन्! शासक विद्वन् ! तू (सुवसनानिवस्त्रा) सुख से आच्छादन करने योग्य वस्त्रों को (अभि अर्ष) धारण कर। (सु-दुघाः, धेनू: अभि अर्ष) सुख से खूब दूध देने वाली गौओं को प्राप्त कर। (नः भर्त्तवे) हमारे भरण पोषणार्थ (चन्द्रा हिरण्या अभि) सर्वाह्लादक, रजत सुवर्ण आदि धनों को भी प्राप्त कर। और (अश्वान् रथिनः अभि) रथ वाले अश्वों को भी प्राप्त कर। इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सुवसन वस्त्रा

    पदार्थ

    हे सोम ! (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ हुआ (सुवसनानि) = उत्तम आच्छादनवाले (वस्त्रा) = इन अन्नमय कोश आदि वस्त्रों को (अभि अर्ष:) = [अभिगमय] प्राप्त करा । अर्थात् तेरे द्वारा ये सब अन्नमय आदि कोश उत्तम बनें। तू हमें (सुदुघाः) = उत्तमता से दोहन के योग्य (धेनूः) = ज्ञानदुग्धदात्री वेदरूप गौवों को (अभि) = [ अर्ष ] प्राप्त करा । (नः) = हमारे लिये (चन्द्रा) = आह्लाद कर (हिरण्या) = हितरमणीय धनों को अभि प्राप्त करा । जो (भर्तवे) -=भरण-पोषण के लिये पर्याप्त हों । हे देव सोम प्रकाशमय वीर्य ! हमें (रथिनः) = शरीररथ को उत्तमता से ले चलनेवाले अश्वान् इन्द्रियाश्वों को (अभि) = [ अर्षा ] प्राप्त करा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सब अन्नमय आदि कोश उत्तम बनते हैं, हमारी बुद्धि वेद धेनुओं से ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली बनती है, हम उत्तम धनों को प्राप्त करते हैं, उत्तम इन्द्रियाश्वों वाले होते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O refulgent Soma, pure and purifying, sung and celebrated, bring us vestments of beauty and grace, cows, abundant and fertile, words of knowledge brilliant, deep and creative, bring us golden graces of beauty and soothing vitality for sustenance and success, bring us the energy and motive powers for our chariot of corporate life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात पुन्हा ऐश्वर्यशाली बनण्याची प्रार्थना केलेली आहे, की हे परमात्मा! तू आम्हाला ऐश्वर्यशाली बनण्यासाठी ऐश्वर्य प्रदान कर. पुन्हा पुन्हा ऐश्वर्याची प्रार्थना करणे अर्थ पुनरुक्ती नाही तर अभ्यास अर्थात् दृढतेसाठी उपदेश आहे जसे की, ‘‘आत्मा वारे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:’’ इत्यादींमध्ये वारंवार चित्तवृत्ती परमात्म्याकडे लावण्याचे कथन केलेले आहे. याच प्रकारे येथे ही दृढतेसाठी त्याच अर्थाने पुन: पुन: कथन आहे. अज्ञानी लोकांना वेदात पुनरुक्ती दोष प्रतीत होतो. वेदात पुनरुक्ती दोष नाही. ही केवळ अज्ञानी लोकांची भ्रांती आहे. ॥५०॥

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