ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 27
ऋषिः - मृळीको वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा दे॑व दे॒वता॑ते पवस्व म॒हे सो॑म॒ प्सर॑से देव॒पान॑: । म॒हश्चि॒द्धि ष्मसि॑ हि॒ताः स॑म॒र्ये कृ॒धि सु॑ष्ठा॒ने रोद॑सी पुना॒नः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । दे॒व॒ । दे॒वऽता॑ते । प॒व॒स्व॒ । म॒हे । सो॒म॒ । प्सर॑से । दे॒व॒ऽपानः॑ । म॒हः । चि॒त् । हि । स्मसि॑ । हि॒ताः । स॒म्ऽअ॒र्ये । कृ॒धि । सु॒ऽस्था॒ने । रोद॑सी॒ इति॑ । पु॒ना॒नः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरसे देवपान: । महश्चिद्धि ष्मसि हिताः समर्ये कृधि सुष्ठाने रोदसी पुनानः ॥
स्वर रहित पद पाठएव । देव । देवऽताते । पवस्व । महे । सोम । प्सरसे । देवऽपानः । महः । चित् । हि । स्मसि । हिताः । सम्ऽअर्ये । कृधि । सुऽस्थाने । रोदसी इति । पुनानः ॥ ९.९७.२७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 27
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देव) हे दिव्यस्वरूपपरमात्मन् ! (देवपानः) विदुषां तृप्तिकर्ता भवान् (देवताते) विद्वद्भिः प्रस्तुते यज्ञे (महे) महति (सोम) हे सौम्यस्वभाव ! (प्सरसे) विद्वत्तृप्तये (पवस्व) पवित्रतां समुत्पादयतु (रोदसी) द्युलोके पृथिवीलोकमध्ये (सुष्ठाने) शोभनस्थाने (पुनानः) मां पावयन् (समर्ये) संसारस्य युद्धस्थलरूपक्षेत्रे (हिताः, कृधि) हितकरे सम्पादयतु मां (हि) यतः (महश्चित्) भवान् तीक्ष्णतमशक्तीः (स्मसि, एव) दधाति हि ॥२७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देव) हे दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! आप (देवपानः) विद्वानों से प्रारम्भ किये हुए यज्ञ में (महे) जो सबसे बड़ा है, उसमें (सोम) हे सौम्यस्वभाव परमात्मन् ! (प्सरसे) विद्वानों की तृप्ति के लिये (पवस्व) पवित्र करें और (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में (सुष्ठाने) शोभन स्थान में (पुनानः) हमको पवित्र करते हुए आप (समर्ये) इस संसार के युद्धरूपी क्षेत्र में (हिताः) हितकर (कृधि) बनाएँ, (हि) क्योंकि आप (महश्चित्) बड़ी से बड़ी शक्तियों को (स्मसि) अनायास से (एव) ही धारण कर रह हो ॥२७॥
भावार्थ
परमात्मा सब लोक-लोकान्तरों को अनायास से धारण कर रहा है। उसी सर्वाधार परमात्मा की सुरक्षा से पुरुष सुरक्षित रहता है, अतएव शुभ कर्म्म करते हुए एकमात्र उसी से सुरक्षा की प्रार्थना करनी चाहिये ॥२७॥
विषय
उत्तम शासक विद्वान् के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
हे (देव) तेजस्विन् ! (सोम) सब के शासक ! तू (देव-ताते) विद्वानों, वीरों, निज गुणी जनों के बने, संघ या उनसे बनाये गये राष्ट्र में (महे सरसे) बड़े भारी ऐश्वर्य की वृद्धि के लिये, तू (देवपानः सन्) समस्त उत्तम मनुष्यों, पदार्थों और गुणों का पालक होकर (पवस्व) आगे बढ़ शासन कर। हम लोग (महः चित् हिताः हि स्मसि) तुझ महान् के ही शासन में स्थिर रहें, और तू (समर्ये) संग्राम, वा सभा भवन में (पुनानः) अभिषिक्त होकर (रोदसी सु-स्थाने कृधि) आकाश और पृथिवीवत् राजा-प्रजा वर्ग दोनों को सुखपूर्वक रहने वाले राष्ट्र में, सुव्यस्थित कर।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सुष्ठाने रोदसी
पदार्थ
हे (देव) = प्रकाशमय (सोम) = वीर्य ! तू (एवा) = गतिशीलता के द्वारा [इ गतौ] (देवताते) = दिव्यगुणों के विस्तार के निमित्त (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (देवपान:) = देववृत्ति के पुरुषों से तू पातव्य है । (महे प्सरसे) = तू महान् भक्षण के लिये हो, ब्रह्म [महान्] चर्य [भक्षण] के लिये हो। तेरे रक्षण से उत्कृष्ट ज्ञान का भक्षण करते हुए हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले हैं, यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है, ब्रह्म ओर गति है । हे सोम ! (हिताः) = तेरे से प्रेरित हुए हुए हम (समर्ये) = संग्राम में (महः चित् हि) = महान् भी शत्रुओं को (ष्मसि) = अभिभूत करनेवाले हो । (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (रोदसी) = द्यावापृथिवी की को, मस्तिष्क व शरीर को (सुष्ठाने) = उत्तम स्थितिवाला कृधि कर । सोम के द्वारा मस्तिष्क व शरीर की उत्तम स्थिति हो, मस्तिष्क ज्ञानदीति वाला हो तो शरीर शक्ति सम्पन्न हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सुररिक्षत सोम महान् ज्ञान की प्राप्ति के द्वारा हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला हो । इसके द्वारा संग्राम में हम रोगकृमिरूप शत्रुओं को जीतनेवाले हों। हमारे मस्तिष्क व शरीर उत्तम स्थिति में हों ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O self-refulgent Soma, sanctifier and giver of fulfilment to the holy and nobly brave in yajna, flow, inspire and energise us for the achievement of a great organised social order. Pure and purifying power of divinity, great we shall be, for sure, nobly inspired and committed to the good in the battle of life. Make the earth and the global environment, heavens and the skies, noble, good and creative as a home good for the progress of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्व लोक लोकांतरांना सहजपणे धारण करत आहे. त्याच सर्वाधार परमात्म्याच्या रक्षणाने पुरुष सुरक्षित असतो. त्यामुळे शुभ कर्म करत रक्षणासाठी एकमेव त्याचीच प्रार्थना केली पाहिजे. ॥२७॥
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