Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 30
    ऋषिः - वसुक्रो वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒वो न सर्गा॑ अससृग्र॒मह्नां॒ राजा॒ न मि॒त्रं प्र मि॑नाति॒ धीर॑: । पि॒तुर्न पु॒त्रः क्रतु॑भिर्यता॒न आ प॑वस्व वि॒शे अ॒स्या अजी॑तिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । न । सर्गाः॑ । अ॒स॒सृ॒ग्र॒म् । अह्ना॑म् । राजा॑ । न । मि॒त्रम् । प्र । मि॒ना॒ति॒ । धीरः॑ । पि॒तुः । न । पु॒त्रः । क्रतु॑ऽभिः । य॒ता॒नः । आ । प॒व॒स्व॒ । वि॒शे । अ॒स्यै । अजी॑तिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवो न सर्गा अससृग्रमह्नां राजा न मित्रं प्र मिनाति धीर: । पितुर्न पुत्रः क्रतुभिर्यतान आ पवस्व विशे अस्या अजीतिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः । न । सर्गाः । अससृग्रम् । अह्नाम् । राजा । न । मित्रम् । प्र । मिनाति । धीरः । पितुः । न । पुत्रः । क्रतुऽभिः । यतानः । आ । पवस्व । विशे । अस्यै । अजीतिम् ॥ ९.९७.३०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 30
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! भवान् मह्यं (अजीतिं) अजयभावं (पवस्व) पुनातु (दिवः, न) यथा स्वर्गात् (अह्नां, सर्गाः) आदित्यरश्मयः (अससृग्रं) प्रचारं लभन्ते, इत्थं परमात्मज्योतींष्यपि तेजोमयात्तस्मात् प्रचारं लभन्ते (न) यथा (धीरः, राजा) धीरस्वामी (मित्रं, न, प्र मिनाति) मित्रप्रजा न हिनस्ति एवं परमात्मापि सदाचारिणं न हिनस्ति (न) यथा च (यतानः, पुत्रः) यतमानः सुतः (क्रतुभिः पितुः) यज्ञैः पितुरैश्वर्यं वाञ्छति एवं वयमपि सत्कर्मभिर्भवदैश्वर्यं कामयामहे, अतः (विशे, आ, पवस्व) सन्तानरूपप्रजां रक्षतु ॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप हमको (अजीतिम्) अजयभाव देकर (पवस्व) पवित्र करें। (दिवः) द्युलोक से (न) जिस प्रकार (अह्नाम्) आदित्य की (सर्गाः) रश्मियें (अससृग्रम्) प्रचार पाती हैं, इसी प्रकार परमात्मा की ज्योतियें प्रकाशरूप परमात्मा से प्रचार पाती हैं और (न) जिस प्रकार (धीरः) धीर (राजा) प्रजा का स्वामी (मित्रम्) मित्ररूप प्रजा को (न प्रमिनाति) नहीं मारता, इसी प्रकार परमात्मा सदाचारी लोगों को (न प्रमिनाति) नहीं मारता और (न) जिस प्रकार (यतानः) यत्नशील (पुत्रः) पुत्र (क्रतुभिः) यज्ञों के द्वारा (पितुः) पिता के ऐश्वर्य्य को चाहता है, इसी प्रकार हम लोग आपके ऐश्वर्य्य को सत्कर्मों द्वारा चाहते हैं, इसलिये (विशे) सन्तानरूप प्रजा को (आपवस्व) आप पवित्र करें ॥३०॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मा से सन्तानों की शुद्धि की प्रार्थना करते हैं, परमात्मा उनकी सन्तानों को अवश्यमेव शुद्धि प्रदान करता है ॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अग्रणी विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अह्नां सर्गाः नः) दिनों के बनाने वाले रश्मियों के तुल्य वा (दिवः सर्गाः नः) आकाश से पड़ने वाले जलों के तुल्य उस (दिवः) सर्व सुखवर्षी मातृवत् प्रभु से (सर्गाः अससृग्रन्) नाना सृष्टियां बराबर उत्पन्न हुआ करती हैं। वह (धीरः) सब जगत् का धारण करने वाला (राजा) सब जगत् का प्रकाशक, प्रभु, राजा के समान रक्षक होकर (मित्रं न प्र मिनाति) मित्रवत् जीव सर्ग को नहीं विनष्ट करता और वह (पितुः पुत्रः न) पिता के पुत्र के समान (क्रतुभिः) नाना उत्तम कर्मों और कर्म-सामर्थ्यों, ज्ञानों से यत्न करता रहे। हे प्रभो ! तू (अस्यै विशे) इस प्रजा के लिये (अजीतिम् आपवस्व) अपराजय और अविनाशमय रक्षा प्रदान कर। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अजीतिम् आपवस्व

    पदार्थ

    (अह्नाम्) = दिनों में (दिवः) = आदित्य की (सर्गाः न) = रश्मियों की तरह जीवन में सोम की (सर्गाः) = धारायें- (प्र) = प्रवाह (अससृग्रम्) = उत्पन्न किये जाते हैं। ये सोम के प्रवाह ही ज्ञानरश्मियों की उत्पत्ति का कारण बनते हैं। (धीरः) = [धियं ईरयति] बुद्धि को प्रेरित करनेवाला (राजा) = जीवन को दीप्त करनेवाला सोम (मित्रम्) = अपने सखा को, अपने रक्षण करनेवाले को (न प्रमिनाति) = हिंसित नहीं करता । (क्रतुभिः) = शक्ति व प्रज्ञानों के साथ (यतानः) = यत्न करता हुआ (पुत्रः) = पुत्र (न) = जैसे (पितुः) = पिता के अपरभाव का कारण होता है, इसी प्रकार हे सोम ! तू (अस्यै विशे) = इस प्रजा के लिये (अजीतिम्) = अपराभव को (आपवस्व) = प्राप्त करा । सुरक्षित सोम कभी भी हमें रोगों व काम-क्रोध रूप शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होने देता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम से हम 'प्रकाशमय, रोगादि से अनाक्रान्त, अपराभूत' जीवनवाले बनते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    As the rays of day light radiate from the sun, as a good ruler does not hurt the people and treats them as friends, as the son tries by yajnic actions to win the father’s love and favour, so O Soma, come to bless this people and assure their victory and progress.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक संतानांच्या शुद्धीसाठी (पावित्र्यासाठी) परमेश्वराची प्रार्थना करतात, परमेश्वर त्यांच्या संतानांना अवश्य शुद्धी (पावित्र्य) शुद्धी प्रदान करतो. ॥३०॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top