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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 54
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मही॒मे अ॑स्य॒ वृष॒नाम॑ शू॒षे माँश्च॑त्वे वा॒ पृश॑ने वा॒ वध॑त्रे । अस्वा॑पयन्नि॒गुत॑: स्ने॒हय॒च्चापा॒मित्राँ॒ अपा॒चितो॑ अचे॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    महि॑ । इ॒मे इति॑ । अ॒स्य॒ । वृष॒नाम॑ । शू॒षे इति॑ । माँश्च॑त्वे । वा॒ । पृश॑ने । वा॒ । वध॑त्रे॒ इति॑ । अस्वा॑पयत् । नि॒ऽगुतः॑ । स्ने॒हय॑त् । च॒ । अप॑ । अ॒मित्रा॑न् । अप॑ । अ॒चितः॑ । अ॒च॒ । इ॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महीमे अस्य वृषनाम शूषे माँश्चत्वे वा पृशने वा वधत्रे । अस्वापयन्निगुत: स्नेहयच्चापामित्राँ अपाचितो अचेतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महि । इमे इति । अस्य । वृषनाम । शूषे इति । माँश्चत्वे । वा । पृशने । वा । वधत्रे इति । अस्वापयत् । निऽगुतः । स्नेहयत् । च । अप । अमित्रान् । अप । अचितः । अच । इतः ॥ ९.९७.५४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 54
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वधत्रे) वधक्रिये (पृशने) युद्धे (मांश्चत्वे) गतिशीलशक्त्युपयोगवति (महि) महति (इमे, वृषनाम) इमे द्वे कार्ये (अस्य) अस्य परमात्मनः (शूषे) सुखप्रदे स्तः (निगुतः) शत्रूणां (अस्वापयत्) स्वापनं (च) तथा (अप, अमित्रान्) ये अमित्रेभ्यः पृथक् सन्ति तान् (स्नेहयत्) स्नेहप्रदानमिति (अचितः) परमात्मभक्तिहीनानां नास्तिकानाम् (इतः) अस्मादास्तिकसमवायात् (अप, च) अपसारणं च ॥५४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वधत्रे) वध करनेवाले (पृशाने) युद्ध में (माँश्चत्वे) जिनमें गतिशील शक्तियों का उपयोग किया जाता है, उनमें (महि) बड़े (इमे) ये (अस्य) इस परमात्मा के (वृषनाम) दो काम (शूषे) सुखकर हैं (निगुतः) शत्रुओं को (अस्वापयत्) सुला देना (च) और (अपमित्रान्) अमित्रों को (स्नेहयत्) स्नेह प्रदान करना (वा) और (अचितः) जो लोग परमात्मा की भक्ति नहीं करते अर्थात् नास्तिक हैं, उनको (इतः) इस आस्तिकसमाज से (अपाच) दूर करना ॥५४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में आस्तिकधर्म के प्रचार करने के लिये अर्थात् वैदिक धर्म की शिक्षाओं के लिये तेजस्वी भावों का वर्णन किया है ॥५४॥

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    विषय

    दुष्टों का दमन करे।

    भावार्थ

    (अस्य) इसके (इमे) ये (वृष-नाम) सुखों की वर्षा करने वाली (शूषे) सब को सुख देने वाली, (पृशने) परस्पर लड़ने भिड़ने योग्य, (मांश्चत्वे) युद्ध काल में (वधत्रे) दो शत्रुओं का नाश करने वाली दो सेनाएं हैं। उनसे तू (निगुतः) नीची, भ्रष्ट वाणी बोलने वाले दुष्ट जनों को (अस्वापयत्) सुला दे और (स्नेहयत् च) भगा देता है। और (अचितः) अचेत, अज्ञाना (अमित्रान्) स्नेह रहित जनों को (इतः अप अच) यहां से दूर कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृष+ नाम

    पदार्थ

    (अस्य) = इस सोम के (इमे) = ये (वृषनाम) = ' शक्ति का सेचन [वृष] और रोग आदि शत्रुओं का नमन' रूप कर्म (मही) = महत्वपूर्ण है और शूषे सुखकर हैं। इसके ये कर्म (मांश्चत्वे) = अभिमान आदि शत्रुओं के विनाश के निमित्त होते हैं, और (पृशने) = [clinging to] चिपट जानेवाले, आसक्ति रूप शत्रुओं के विजय में (वधत्रे) = हिंसनशील होते हैं। सोम शक्ति के सेचन व शत्रुनमन रूप कार्यों के द्वारा हमारे अभिमान व आसक्ति रूप शत्रुओं को विनष्ट करके हमें 'निर्भय व निरहंकार' बनाता है। ऐसा बनकर के ही तो हम शान्ति को प्राप्त करते हैं । सो सोम हमें शान्ति लाभ कराता है । यह सोम (निगुतः) = अशुभ शब्द करनेवाले क्रोध आदि शत्रुओं को (अस्वापयत्) = सुला देता है (च) = और (स्नेहयत्) = इनका वध कर देता है। [स्नेहयति destroy, kill] हे सोम ! तू (अमित्रान्) = हमारे सब शत्रुओं को (अपाच) = [अप-अच] दूर कर और (इतः) = हमारे इस जीवन से (अचिता) = यज्ञों में (अग्निचयन) = न करने के भावों को (अप) = [अच] = दूर करिये। हम सोमरक्षण से यज्ञशीलता की भावना वाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम 'शक्ति से धन व शत्रुनमन' रूप कार्यों द्वारा हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं। सोमरक्षण हमें यज्ञशील बनाता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These are the mighty great and constructive works of the virile and generous Soma in the battles of life either in social dynamics or close encounters or in fierce conflicts: sending the destroyers to sleep, separating off the unfriendly and removing the unawake and unaware from here where they are, (by constructive, waking up friendly exercise).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात आस्तिक धर्माचा प्रचार करण्यासाठी अर्थात वैदिक धर्माच्या शिक्षणासाठी तेजस्वी भावांचे वर्णन केलेले आहे. ॥५४॥

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