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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 11
    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध॒ धार॑या॒ मध्वा॑ पृचा॒नस्ति॒रो रोम॑ पवते॒ अद्रि॑दुग्धः । इन्दु॒रिन्द्र॑स्य स॒ख्यं जु॑षा॒णो दे॒वो दे॒वस्य॑ मत्स॒रो मदा॑य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । धार॑या । मध्वा॑ । पृ॒चा॒नः । ति॒रः । रोम॑ । प॒व॒ते॒ । अद्रि॑ऽदुग्धः । इन्दुः॑ । इन्द्र॑स्य । स॒ख्यम् । जु॒षा॒णः । दे॒वः । दे॒वस्य॑ । म॒त्स॒रः । मदा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध धारया मध्वा पृचानस्तिरो रोम पवते अद्रिदुग्धः । इन्दुरिन्द्रस्य सख्यं जुषाणो देवो देवस्य मत्सरो मदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध । धारया । मध्वा । पृचानः । तिरः । रोम । पवते । अद्रिऽदुग्धः । इन्दुः । इन्द्रस्य । सख्यम् । जुषाणः । देवः । देवस्य । मत्सरः । मदाय ॥ ९.९७.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अद्रिदुग्धः) चित्तवृत्त्या साक्षात्कृतः स परमात्मा (पवते) अस्मान् पुनाति (अध) अथ च (मध्वा, धारया) आनन्दधारया (पृचानः) विदुषस्तर्पयन् (रोम, तिरः) अज्ञानं तिरस्कुर्वन् मां पुनाति (देवस्य) दिव्यरूपस्य तस्य (मत्सरः) आह्लादकानन्दः (मदाय) अस्मन्मोदाय भवतु (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवतस्तस्य (सख्यं) मित्रतां (जुषाणः) सेवमानः (देवः) विद्वान् (इन्दुः) प्रकाशस्वरूपः सन् सद्गतिं लभते ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अद्रिदुग्धः) चित्तवृत्तियों से साक्षात्कार किया हुआ परमात्मा (पवते) इसको पवित्र करता है (अध) और (मध्वा, धारया) आनन्द की धाराओं से (पृचानः) विद्वानों को तृप्त करता हुआ (रोम, तिरः) अज्ञान को तिरस्कृत करके हमको पवित्र करे और (देवस्य) उक्त दिव्यरूप परमात्मा का (मत्सरः) आह्लादक जो आनन्द है, वह (मदाय) हमारे लिये मोदक लिये हो। (इन्द्रस्य) ऐश्वर्य्यसम्पन्न परमात्मा के (सख्यम्) मैत्रीभाव को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (इन्दुः) प्रकाशस्वरूप (देवः) विद्वान् सद्गति को प्राप्त होता है ॥११॥

    भावार्थ

    अज्ञान की निवृत्ति के लिये परमात्मा की उपासना सर्वोपरि साधन है ॥११॥

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    विषय

    जीव का जिज्ञासु शिष्यवत् वर्णन।

    भावार्थ

    (अध) और (मध्वा धारया पृचानः) मधुर वेदमय ज्ञान रस से युक्त, वाणी से युक्त होता हुआ वह (अद्रि-दुग्धः) मेघ के तुल्य उदार गुरुजनों से, ज्ञान से परिपूर्ण होकर (रोम) ब्रह्मचर्य काल में गृहीत मृगाजिन वा आविक कम्बलादि को (तिरः पवते) एक ओर कर देता है, और वह (इन्दुः) चन्द्रवत् आह्लादक तेजस्वी होकर (इन्द्रस्य सख्यं जुषाणः) ज्ञान के दाता, अज्ञान के नाशक गुरु के मित्र भाव युक्त पद का सेवन करता हुआ (देवः) स्वयं अन्यों को ज्ञान देने में समर्थ एवं तेजस्वी (मत्सरः) सबको हर्षदाता होकर (देवस्य मदाय) अपने ज्ञान-दाता गुरु के हर्ष का कारण होता है। इसी प्रकार (देवः) ऐश्वर्यादि का इच्छुक जीव उस उपास्यदेव का सख्य प्राप्त करता हुआ ज्ञान से पूर्ण और ज्ञान वाणी से युक्त होकर। (रोम तिरः पवते) रोम से आवृत इस देह-बन्धन को दूर कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्तिरः रोम पवते

    पदार्थ

    (अध) = अब यह सोम (मध्वा धारया) = माधुर्ययुक्त धारणशक्ति से (पृचानः) = हमें संपृक्त करता हुआ (तिर:) = अन्तर्हित सोम [रु शब्दे] = शब्द को पवते प्राप्त कराता है। यह अन्तर्हित शब्द ही 'प्रभु प्रेरणा' है। इसे सामन्यतः हम सुन नहीं पाते । सोमरक्षण से पवित्र हृदय वाले होकर हम इसे सुनने के योग्य होते हैं । यह सोम (अद्रिदुग्ध:) = [ adore = आदृ] प्रभु के उपासकों से अपने में पूरित किया जाता है । (इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष की (सख्यम्) = मित्रता को (जुषाण:) = सेवित करता हुआ (देवः) = प्रकाशमयता को देनेवाला होता है [ देवः द्योतनात्] । यह (मत्सरः) = आनन्द का संचय करनेवाला सोम देवस्य उस प्रकाशमय जीवनवाले सोमरक्षक पुरुष के (मदाय) = उल्लास के लिये होता है, सोमरक्षण से जीवन उल्लासमय बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से जीवन मधुर, उल्लासमय व प्रकाशमय बनता है । सोमरक्षण हमें प्रभु प्रेरणा के सुनने के योग्य बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And by streams of honey shower, joining spiritual awareness, overflowing the heart cave, Soma, distilled from the adamantine practice of meditative self- control, flows pure, purifying, wholly fulfilling. The brilliant divine spirit of joy cherishing friendly communion with Indra, the Soul, is the ecstasy meant for the joyous fulfilment of the soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अज्ञानाच्या निवृत्तीसाठी परमेश्वराची उपासना सर्वश्रेष्ठ साधन आहे. ॥११॥

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