ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 24
ऋषिः - कर्णश्रुद्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प॒वित्रे॑भि॒: पव॑मानो नृ॒चक्षा॒ राजा॑ दे॒वाना॑मु॒त मर्त्या॑नाम् । द्वि॒ता भु॑वद्रयि॒पती॑ रयी॒णामृ॒तं भ॑र॒त्सुभृ॑तं॒ चार्विन्दु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप॒वित्रे॑भिः॒ । पव॑मानः । नृ॒ऽचक्षा॑ । राजा॑ । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मर्त्या॑नाम् । द्वि॒ता । भु॒व॒त् । र॒यि॒ऽपतिः॑ । र॒यी॒णाम् । ऋ॒तम् । भ॒र॒त् । सुऽभृ॑तम् । चारु॑ । इन्दुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवित्रेभि: पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत मर्त्यानाम् । द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत्सुभृतं चार्विन्दु: ॥
स्वर रहित पद पाठपवित्रेभिः । पवमानः । नृऽचक्षा । राजा । देवानाम् । उत । मर्त्यानाम् । द्विता । भुवत् । रयिऽपतिः । रयीणाम् । ऋतम् । भरत् । सुऽभृतम् । चारु । इन्दुः ॥ ९.९७.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दुः) प्रकाशस्वरूपः परमात्मा (चारु) रम्यं (ऋतं) प्रकृत्यात्मकसत्यं (भरत्) धारयति, तच्च सत्यं (सुभृतं) सम्यक् लोकतृप्तिकारणं स परमात्मा च (रयीणां) धनानां (पतिः) स्वाम्यस्ति (द्विता) जीवप्रकृतिरूपद्वैताय (भुवत्) स्वामित्वेन विराजते (उत) तथा (मर्त्यानां) साधारणजनानां (देवानां) विदुषां च (राजा) अधिष्ठातास्ति (नृचक्षाः) शुभाशुभकर्मद्रष्टा (पवित्रेभिः) स्वपवित्रशक्तिभिः (पवमानः) पवित्रयन्नास्ते ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दुः) प्रकाशस्वरूप परमात्मा (चारु) सुन्दर (ऋतम्) प्रकृतिरूपी सत्य को (भरत्) धारण किये हुए है, वह प्रकृतिरूपी सत्य (सुभृतम्) भली-भाँति सबकी तृप्ति का कारण है, उक्त परमात्मा (रयीणाम्) धनों का (पतिः) स्वामी है और (द्विता) जीव और प्रकृतिरूपी द्वैत के लिये (भुवत्) स्वामीरूप से विराजमान है, (उत) और (मर्त्यानाम्) साधारण मनुष्यों का और (देवानाम्) विद्वानों का (राजा) राजा है (नृचक्षाः) शुभाशुभ कर्मों का द्रष्टा है तथा (पवित्रेभिः) अपनी पवित्र शक्तियों से (पवमानः) पवित्रता देनेवाला है ॥२४॥
भावार्थ
परमात्मा ने प्रकृतिरूपी परिणामिनित्य और जीवरूपी कूटस्थनित्य द्वैत को धारण किया है। इस प्रकार जीव और प्रकृति का परमात्मा से भेद है, इस विषय का वर्णन वेद के कई एक स्थानों में अन्यत्र भी पाया जाता है। जैसा कि “न तं विदाथ य इमा जजानान्यद् युष्माकमन्तरं बभूव।” यजुर्वेद १७।३। तुम उसको नहीं जानते, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, वह तुम से भिन्न है। इस मन्त्र में द्वैतवाद का वर्णन स्पष्ट रीति से पाया जाता है ॥२४॥
विषय
उत्तम शासक विद्वान् के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
वह (इन्दुः) तेजस्वी पुरुष (पवित्रेभिः पवमानः) पवित्र करने वाले साधनों से अपने आपको और राष्ट्र को भी पवित्र करता हुआ, (नृचक्षाः) नेता प्राणों से जगत् भर को देखने वाले आत्मा के तुल्य अपने जनों से राष्ट्र को देखने वाला वा सबके शुभाशुभ को देखने वाला राजा एवं तत् प्रभु भी (देवानाम् उत मर्त्यानाम् राजा भुवत्) देवों और मर्त्यो, विद्वानों और साधारण जनों का राजा हो जाता है। वह (रयीणां रयिपतिः भुवत्) सब ऐश्वर्यों का स्वामी हो जाता है। वह (सु-भृतम्) उत्तम पुरुषों से उत्तम रीति से धारण करने योग्य (चारु) उत्तम (ऋतम्) तेज, अन्न, ज्ञान, ऐश्वर्य को (भरत्) धारण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
रयिपतिः रयीणाम्
पदार्थ
(पवित्रेभिः) = पवित्र हृदय वाले पुरुषों से (पवमानः) = जाया जाता हुआ (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान [रक्षण, चक्षा look after] करनेवाला (देवानाम्) = सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि देवों को (उत) = और इन पिण्डों में निवास करनेवाले (मर्त्यानाम्) = मनुष्यों का राजा शासक वह प्रभु (द्विता) = [द्वौ तनोति] मस्तिष्क में ज्ञान व शरीर में शक्ति का विस्तार करनेवाला (भुवद्) = होता है । वे प्रभु ही (रयीणां रयिपतिः) = धनों के स्वामी हैं । हे (इन्द:) = शक्तिशाली प्रभु ! (चारु) = सुन्दर (सुभृतम्) = उत्तम भरण करनेवाले (ऋतं भरत्) = ऋत का, यज्ञ का भरण करते हैं। इन यज्ञों के द्वारा ही वे उपासकों को सब कल्याणों को प्राप्त कराते हैं। प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में इस यज्ञ को ही प्राप्त कराया और कहा कि इसके द्वारा तुम फलो-फूलोगे, यह तुम्हारी इष्टकामनाओं को पूर्ण करेगा । भावार्थ- प्रभु उपासकों को यज्ञशील बनाकर उनके ज्ञान व शक्ति का विस्तार करते हैं। यह यज्ञ ही उनके लिये सब ऐश्वर्यों के देनेवाला होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Flowing and purifying by its pervasive presence of sanctity, all watching Soma is the ruler of all divine forces of both nature and humanity. Controller of both nature and humanity, presiding over the dynamics of universal law, bearing and sustaining the cosmos, brilliant and beatific, Soma is the master, ruler and dispenser of all wealth, honours and excellence of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराने प्रकृतिरूपी परिणामी नित्य व जीवरूपी कूटस्थ नित्य द्वैताला धारण केलेले आहे. या प्रकारे जीव व प्रकृतीचा परमेश्वरापासून भेद आहे. या विषयाचे वर्णन वेदामध्ये कित्येक स्थानी आढळून येते. जसे (न तं विदाय य इमा जजानान्य द्यु ष्माकम् अन्तरं बभूव । यजुर्वेद १७.३१) तुम्ही त्याला जाणत नाही ज्याने या जगाला उत्पन्न केलेले आहे. तो तुमच्यापेक्षा भिन्न आहे. या मंत्रात द्वैतवादाचे वर्णन स्पष्ट रीतीने केलेले आढळते. ॥२४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal