ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 15
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ए॒वा प॑वस्व मदि॒रो मदा॑योदग्रा॒भस्य॑ न॒मय॑न्वध॒स्नैः । परि॒ वर्णं॒ भर॑माणो॒ रुश॑न्तं ग॒व्युर्नो॑ अर्ष॒ परि॑ सोम सि॒क्तः ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । प॒व॒स्व॒ । म॒दि॒रः । मदा॑य । उ॒द॒ऽग्रा॒भस्य॑ । न॒मय॑न् । व॒ध॒ऽस्नैः । परि॑ । वर्ण॑म् । भर॑माणः । रुश॑न्तम् । ग॒व्युः । नः॒ । अ॒र्ष॒ । परि॑ । सो॒म॒ । सि॒क्तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा पवस्व मदिरो मदायोदग्राभस्य नमयन्वधस्नैः । परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः ॥
स्वर रहित पद पाठएव । पवस्व । मदिरः । मदाय । उदऽग्राभस्य । नमयन् । वधऽस्नैः । परि । वर्णम् । भरमाणः । रुशन्तम् । गव्युः । नः । अर्ष । परि । सोम । सिक्तः ॥ ९.९७.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 15
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(मदिरः) हे आनन्दस्वरूपपरमात्मन् ! (मदाय) आनन्दाय (उदग्राभस्य) अज्ञानमेघान् (वधस्नैः, नमयन्) स्वबाधकशस्त्रैर्नम्रीकुर्वन् (रुशन्तं) दीप्तिमत् (गव्युः) ज्ञानम् (नः) अस्मभ्यं (परि अर्ष) प्रयच्छतु (सोम) हे सौम्यगुणसम्पन्नभगवन् ! (वर्णं, भरमाणः) अस्मासु योग्यतां समुत्पादयन् (परि सिक्तः) ज्ञानप्रदो भवतु ॥१५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मदिरः) हे आनन्दस्वरूप परमात्मन् ! (मदाय) हमारे आनन्द के लिये आप (उदग्राभस्य) अज्ञान के बादल को (वधस्नैर्नमयन्) अपने बाधक शस्त्रों से नम्र करते हुए (रुशन्तम्) दीप्तिवाले (गव्युः) ज्ञान को (नः) हमारे लिये (पर्य्यर्ष) प्रदान कीजिये। (सोम) हे सौम्यगुण सम्पन्न परमात्मन् ! (वर्णं, भरमाणः) हममें योग्यता को करते हुए आप (परि सिक्तः) हमारे लिये ज्ञानप्रद हूजिये ॥१५॥
भावार्थ
जो लोग अनन्य भक्ति से परमात्मा का भजन करते हैं, परमात्मा उनके अज्ञान के बीज को छिन्न-भिन्न करके अवश्यमेव ज्ञान का प्रकाश करता है ॥१५॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (सोम) उत्तम शासन करने हारे विद्वन् ! राजन् ! तू (उद-ग्रामस्य) आदर सत्कारार्थ जल ग्रहण करने वाले, अभिषेचक प्रजाजन के (मदाय) हर्षोत्सव की वृद्धि के लिये (एव पवस्व) अवश्य इस राष्ट्र को प्राप्त कर और इसको कष्टों से रहित कर। (वधस्नैः) अपने दुष्ट नाशक साधनों, शस्त्रास्त्रों तथा उपदेशों से, (नमयन्) सब को विनयपूर्वक झुकाता हुआ (रुशन्तं वर्णम्) तेजोयुक्त अपने को वरण करने वाले तेजस्वी रूप के समान, उज्ज्वल, क्षात्र, ब्राह्म और वैश्य वर्ण को (परि भरमाणः) सब ओर परिपुष्ट करता हुआ, (गव्युः) भूमि और स्तुति वाणियों को चाहता हुआ (परि सिक्तः) अभिषिक्त होकर (नः अर्ष) हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
रुशन्तं भरमाणः
पदार्थ
शरीर में जल रेतः कणों के रूप में है। इनका संयम [ग्रहण] करनेवाला व्यक्ति 'उद-ग्राभ' है । हे सोम ! (एवा) = [इ गतौ] गतिशीलता के द्वारा पवस्व हमें प्राप्त हो । (मदिरः) = तू मद व उल्लास का जनक है। (उद-ग्राभस्य) = रेतः कणों का ग्रहण व रक्षण करनेवाले के (मदायः) = तू आनन्द के लिये होता है । (वधस्त्रैः) = अपने हनन साधन आयुधों से तेजस्विता रूप अश्वों से (नमयन्) = तू शत्रुओं को नतमस्तक करनेवाला होता है। वस्तुतः शत्रुओं को नष्ट करते ही तू आनन्द का जनक होता है। रोग व वासना रूप शत्रुओं को नष्ट करके (रुशन्तं वर्णम्) = चमकते हुए रूप को (भरमाणः) = धारण करता हुआ, (गव्युः) = उत्तम इन्द्रियों को हमारे साथ जोड़ने की कामना वाला (परिसिक्तः) = शरीर में चारों ओर सिक्त हुआ हुआ तू परि अर्षा शरीर में चारों ओर गतिवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का रक्षक पुरुष आनन्दमय जीवन वाला होता है, इसके रोग व वासना रूप शत्रु नष्ट हो जाते हैं, यह दीप्तरूप को धारण करता है, प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Thus vibrate and flow on, spirit of ecstasy, for joy, bending and breaking the clouds which hold up the rain and radiations of light, and, bearing bright light and illuminative varieties of knowledge, continue to flow on, O Soma, generous and exalted presence, lover of showers and light and bearer of the bolt of power and force to strike down the negativities.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक अनन्य भक्तीने परमेश्वराचे भजन करतात. परमेश्वर त्यांच्या अज्ञानाचे बीज छिन्न भिन्न करून अवश्य ज्ञानाचा प्रकाश करतो. ॥१५॥
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