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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 43
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒जुः प॑वस्व वृजि॒नस्य॑ ह॒न्तापामी॑वां॒ बाध॑मानो॒ मृध॑श्च । अ॒भि॒श्री॒णन्पय॒: पय॑सा॒भि गोना॒मिन्द्र॑स्य॒ त्वं तव॑ व॒यं सखा॑यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒जुः । प॒व॒स्व॒ । वृ॒जि॒नस्य॑ । ह॒न्ता । अप॑ । अमी॑वाम् । बाध॑मानः । मृधः॑ । च॒ । अ॒भि॒ऽश्री॒णन् । पयः॑ । पय॑सा । अ॒भि । गोना॑म् । इन्द्र॑स्य । त्वम् । तव॑ । व॒यम् । सखा॑यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋजुः पवस्व वृजिनस्य हन्तापामीवां बाधमानो मृधश्च । अभिश्रीणन्पय: पयसाभि गोनामिन्द्रस्य त्वं तव वयं सखायः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋजुः । पवस्व । वृजिनस्य । हन्ता । अप । अमीवाम् । बाधमानः । मृधः । च । अभिऽश्रीणन् । पयः । पयसा । अभि । गोनाम् । इन्द्रस्य । त्वम् । तव । वयम् । सखायः ॥ ९.९७.४३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 43
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ऋजुः) सरलस्वभावो भवान् (वृजिनस्य, हन्ता) अज्ञाननाशकः (अमीवां) व्याधिं (अप बाधमानः) अपसारयन् (मृधः, च) दुष्टहिंसकांश्च अपसारयन् (गोनां) इन्द्रियाणां (पयसा) तर्पकवृत्त्या (पयः) ज्ञानं लक्ष्यीकृत्य (अभिश्रीणन्) भवान् लक्ष्यीक्रियते (त्वं) भवान् (इन्द्रस्य) कर्मयोगिनः मित्रमस्ति अतः (वयं, तव, सखायः) वयमपि भवतो मित्रतां वाञ्छामः (पवस्व) अस्मान् पुनातु भवान् ॥४३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ऋजुः) शान्तभाव से शासन करनेवाले आप (वृजिनस्य) अज्ञानरूप वृजिन दोष के (हन्ता) हनन करनेवाले हैं, (अमीवां) सबप्रकार की व्याधियों को (अप) दूर करें, (च) और (मृधः) दुष्ट हिंसकों को (बाधमानः) दूर करते हुए आप (गोनाम्) इन्द्रियों की (पयसा) तृप्तिकारक वृत्ति द्वारा (पयः) ज्ञान को लक्ष्य करके (अभिश्रीणन्) आप लक्ष्य बनाए जाते हैं। (त्वम्) आप (इन्द्रस्य) कर्मयोगी के मित्र हैं, इसलिये (वयं, तव, सखायः) तुम्हारी मैत्री हम चाहते हैं, (पवस्व) आप हमें पवित्र करें ॥४३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में सब दुःखों के दूर करनेवाले परमात्मा से दुःखनिवृत्ति की प्रार्थना है अर्थात् आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक उक्त तीनों प्रकार के तापों की निवृत्ति परमात्मा से कथन की गयी है। सायणाचार्य्य ‘ऋजुः पवस्व’ के अर्थ यहाँ सोमरस के सीधा होकर बहने के करते हैं अर्थात् क्षर के करते हैं, सो “पूञ् पवने” धातु के ये अर्थ सर्वत्र अयुक्त हैं ॥४३॥

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    विषय

    विद्रान् शासक के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! सोम ! शास्तः ! तू (ऋजुः) सरल, धर्मात्मा, होकर (वृजिनस्य हन्ता) पाप, उपद्रव का नाश करने वाला, (अमीवां अप बाधमानः) रोग आदि कष्टदायक कारण को दूर करता हुआ, और (मृधः च अप बाधमानः) हिंसक शत्रुओं और रोगों को ओषधि सोमवत् दूर करता हुआ, (पवस्व) राष्ट्र-शरीर को पवित्र कर। तू (गोनाम् पयः अभि पयसा श्रीणन्) भूमियों के प्राप्त अन्न को पुष्टिकारक बल से सेचित वृद्धि युक्त करता हुआ, (त्वं इन्द्रस्य सखा) तू राजा वा प्रभु वा जीव मात्र का मित्र वा मेघ, सूर्य के सदृश हो और (वयं तव सखायः) हम तेरे मित्र हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृजिनस्य हन्ता

    पदार्थ

    हे सोम ! (ऋजुः) = सरल मन वाला तू (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । सोमरक्षण से हमारी प्रवृत्ति सरल होती है । (वृजिनस्य हन्ता) = यह सोम पाप का नष्ट करनेवाला है । (अमीवाम्) = रोगों को (च) = तथा (मृध:) = काम-क्रोध आदि हिंसक शत्रुओं को (अपबाधमानः) = सुदूर विनष्ट करता हुआ तू हे सोम ! (गोनाम्) = इन ज्ञानदुग्ध को देनेवाली वेदवाणी रूप गौवों के (पयसा) = ज्ञानदुग्ध से (पयः) = ज्ञान को (अभिश्रीणन्) = अपरा विद्या व परा विद्या दोनों के दृष्टिकोण से [अभि] परिपक्व करता हुआ (त्वम्) = तू (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का मित्र होता है। सो (वयम्) = हम (तव सखायः) = तेरे मित्र बनते हैं। तुझे अपनाते हुए हम अपने कल्याण को सिद्ध करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम पापों, रोगों व वासनाओं को विनष्ट करता है, ज्ञान को बढ़ाता है। इस प्रकार यह हमारा सच्चा मित्र है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Flow on, creative power, pure and purifying, simple, straight and natural, destroyer of crookedness, driving away and warding off violence and negativities, extending and refining knowledge with knowledge of the dynamics of nature, mind and senses. You and we, then, are friends and cooperators in progress, O friend of the karma-yogi.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात सर्व दु:ख दूर करणाऱ्या परमेश्वराला दु:खनिवृत्तीसाठी प्रार्थना आहे. अर्थात्, आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तीन प्रकारच्या तापांची निवृत्ती परमेश्वर करतो हे कथन आहे. सायणाचार्य ‘ऋजु: पवस्व’चा अर्थ सोमरस सरळ प्रवाहित होणे असा करतात. अर्थात्, क्षरचा करतात त्यासाठी (पूञ् पवने) धातू सर्वत्र अयुक्त आहे. ॥४३॥

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