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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि प्रि॒याणि॑ पवते पुना॒नो दे॒वो दे॒वान्त्स्वेन॒ रसे॑न पृ॒ञ्चन् । इन्दु॒र्धर्मा॑ण्यृतु॒था वसा॑नो॒ दश॒ क्षिपो॑ अव्यत॒ सानो॒ अव्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । प्रि॒याणि॑ । प॒व॒ते॒ । पु॒ना॒नः । दे॒वः । दे॒वान् । स्वेन॑ । रसे॑न । पृ॒ञ्चन् । इन्दुः॑ । धर्मा॑णि । ऋ॒तु॒ऽथा । वसा॑नः । दश॑ । क्षिपः॑ । अ॒व्य॒त॒ । सानौ॑ । अव्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि प्रियाणि पवते पुनानो देवो देवान्त्स्वेन रसेन पृञ्चन् । इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानो अव्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । प्रियाणि । पवते । पुनानः । देवः । देवान् । स्वेन । रसेन । पृञ्चन् । इन्दुः । धर्माणि । ऋतुऽथा । वसानः । दश । क्षिपः । अव्यत । सानौ । अव्ये ॥ ९.९७.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 12
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवः) परमात्मदेवः (देवान्) विदुषः (स्वेन) आत्मीयेन (रसेन) आनन्देन (पृञ्चन्) तर्पयन् (अभि प्रियाणि) सर्वान् प्रियपदार्थान् (पवते) पुनाति (पुनानः) सर्वान् पावयन् (इन्दुः) प्रकाशमयः सः (धर्माणि) वर्णाश्रमधर्मान्पृथक्कुर्वन् (ऋतुथा) सर्वर्तुषु (वसानः) निवसन् (दश, क्षिपः) पञ्चस्थूलानि पञ्च च सूक्ष्माणि भूतानि तेषां (अव्ये, सानौ) ब्रह्माण्डरूपकार्ये विराजमानः (अव्यत) अस्मान् रक्षति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवः) उक्त परमात्मरूप देव (देवान्) विद्वानों को (स्वेन) अपने (रसेन) आनन्द से (पृञ्चन्) तृप्त करता हुआ (अभि प्रियाणि) सब प्रिय पदार्थों को (पवते) पवित्र करता है। (पुनानः) सबको पवित्र करनेवाला परमात्मा (इन्दुः) जो प्रकाशस्वरूप है, वह (धर्माणि) वर्णाश्रमों के धर्म्मों को पृथक्-२ विधान करता हुआ (ऋतुथा) सब ऋतु और देश-कालों में (वसानः) निवास करता हुआ (दश, क्षिपः) पाँच स्थूल और पाँच सूक्ष्म भूतों के (अव्ये, सानौ) ब्रह्माण्डरूप इस कार्य्य में विराजमान होकर (अव्यत) हमारी रक्षा करता है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा सूत्रात्मारूप से सब सूक्ष्म और स्थूल भूतों में विराजमान है और उसी ने आदि सृष्टि में वर्णाश्रमों का गुण, कर्म, स्वभाव द्वारा विभाग किया है ॥१२॥

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    विषय

    दश अमात्यों पर मुख्य राजा के समान दश प्राण युक्त आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    (स्वेन रसेन) अपने बल और आनन्द रससे सब (देवान्) देवों, बल, धन आदि की कामना करने वाले जनों, प्राणों और इच्छुकों को संयुक्त करता हुआ (पुनानः) पवित्र होता हुआ और (देवः) ज्ञान बलैश्वर्यप्रद सोम, शासक मुख्य नायकवत् आत्मा या साधक विद्वान् (ऋतुथा) काल वा ऋतु के अनुसार (प्रियाणि धर्माणि अभि वसानः) सब को प्रिय लगने वाले वा पोषक आत्मप्रिय धर्मों, धारक यत्नों वा साधनों को धारण करता हुआ, (इन्दुः) तेजस्वी, ऐश्वर्य शक्तियों से युक्त होकर, (अव्यै सानौ) सर्वरक्षक, पालक के उच्च भोग्य या भोक्ता पद पर अपने अधीन (दश क्षिपः) आशु काम करने वाले दश प्राणों को राजा दश अमात्य प्रकृतियों के समान (अव्यत) प्राप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    स्वेन रसेन पृञ्चम्

    पदार्थ

    यह (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ सोम, वासनाओं के उबाल से मलिन न किया जाता हुआ सोम (प्रियाणि) = सब प्रिय धनों को, जीवनतत्त्वों को (अभिपवते) = प्राप्त कराता है। (देवः) = यह प्रकाशमयता को देनेवाला सोम (देवान्) = सब इन्द्रियों को (स्वेन रसेन) = अपने शक्तिप्रद रस से (पृञ्चन्) = संपृक्त करता है। सब इन्द्रियों को यही बल प्राप्त कराता है । (इन्दुः) = यह शक्तिशाली सोम (धर्माणि) = धारणात्मक शक्तियों को (ऋतुथा) = समय के अनुसार (वसानः) धारण कराता है। (दशक्षिपः) = विषय वासनाओं को परे फेंकनेवाली दस इन्द्रियाँ इस सोम को (अव्ये) = रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष में सानो-शिखर पर, मस्तिष्करूप द्युलोक में (अव्यत) = भेजती हैं [गमयन्ति]। वहाँ यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और ज्ञानदीप्त जीवन वाला बनाता है। सोम की ऊर्ध्वगति तभी होती है जब कि इन्द्रियाँ विषयों में न फँसी हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम जीवन के प्रियतत्त्वों को प्राप्त कराता है, इन्द्रियों को सशक्त बनाता है, धारकशक्ति को देता है और मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To all dear loving ones flows divine and brilliant Soma, pure, purifying and fulfilling the noble sages with its nectar of ecstasy. May the brilliant joyous divinity, pervading and shining with virtues according to time and season, purify and fulfill us on top of this protective world of ten senses, ten pranas and ten gross and subtle elements.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा सूत्रात्मा रूपाने सर्व सूक्ष्म व स्थूल भूतांमध्ये विराजमान आहे व त्यानेच आदि सृष्टीत वर्णाश्रमांचे गुण, कर्म, स्वभावाद्वारे विभाग केलेले आहेत. ॥१२॥

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