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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 52
    ऋषिः - कुत्सः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒या प॒वा प॑वस्वै॒ना वसू॑नि माँश्च॒त्व इ॑न्दो॒ सर॑सि॒ प्र ध॑न्व । ब्र॒ध्नश्चि॒दत्र॒ वातो॒ न जू॒तः पु॑रु॒मेध॑श्चि॒त्तक॑वे॒ नरं॑ दात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒या । प॒वा । प॒व॒स्व॒ । ए॒ना । वसू॑नि । माँ॒श्च॒त्वे । इ॒न्दो॒ इति॑ । सर॑सि । प्र । ध॒न्व॒ । ब्र॒ध्नः । चि॒त् । अत्र॑ । वातः॑ । न । जू॒तः । पु॒रु॒ऽमेधः॑ । चि॒त् । तक॑वे । नर॑म् । दा॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अया पवा पवस्वैना वसूनि माँश्चत्व इन्दो सरसि प्र धन्व । ब्रध्नश्चिदत्र वातो न जूतः पुरुमेधश्चित्तकवे नरं दात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अया । पवा । पवस्व । एना । वसूनि । माँश्चत्वे । इन्दो इति । सरसि । प्र । धन्व । ब्रध्नः । चित् । अत्र । वातः । न । जूतः । पुरुऽमेधः । चित् । तकवे । नरम् । दात् ॥ ९.९७.५२

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 52
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! (अया, पवा, पवस्व) अनया पाविकया वृष्ट्या मां पुनातु (एना, वसूनि) इमानि धनानि च ददातु (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप ! (मांश्चत्वे, सरसि) वाण्याः समुद्रे मां (प्र, धन्व) प्रेरयतु ततश्च सपत्कवित्वं निष्पादयतु (वातः, न) कर्मयोगिनमिव (जूतः) गतिशीलं कुर्वन् (अत्र) उक्तज्ञानविषये (ब्रध्नः) प्रामाणिकं (चित्) तथा (पुरुमेधः) बहुबुद्धिं सम्पादयतु (चित्) तथा (तकवे) संसारगतौ (नरं) कर्मयोगिनं सन्तानं (दात्) ददातु मह्यम् ॥५२॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वोत्पादक परमात्मन् ! (अया) इस (पवा) पवित्र करनेवाली वृष्टि से (पवस्व) आप हमको पवित्र करें, (एना) ये (वसूनि) धन आप हमको दें, (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (माँश्चत्वे, सरसि) वाणी के समुद्र में आप हमको (प्रधन्व) प्रेरणा करके स्नातक बनाएँ और (वातः) कर्मयोगी के (न) समान (जूतः) गतिशील बनाते हुए आप (अत्र) उक्त विज्ञानविषय में (ब्रध्नः) प्रमाणिक (चित्) और (पुरुमेधः) बहुत बुद्धिवाला बनाएँ (चित्) और (तकवे) संसार की गति में (नरम्) कर्मयोगी सन्तान (दात्) मुझे दें ॥५२॥

    भावार्थ

    जो लोग उक्त प्रकार से शक्तिसम्पन्न होने की ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, परमात्मा उन्हें अवश्यमेव ऐश्वर्य्यसम्पन्न बनाता है ॥५२॥

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    विषय

    प्रजा के प्रति कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (अया पवा) उस पावनी, दुष्टनाशिनी शक्ति से तू (एना वसूनि पवस्व) इन वासस्थानों को स्वच्छ कर और इन नाना ऐश्वर्यों को प्राप्त कर। हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन्, तेजस्विन् ! तू (मांश्चत्वे) अभिमानी दुष्ट शत्रुओं को नाश करने में समर्थ (सरसि) वेग से प्रयाण करने वाले सैन्य बल के आधार पर (प्र धन्व) आगे बढ़। (वातः न) वेगवान् वायु के समान तू (ब्रध्नः) आदित्यवत् तेजस्वी (जूतः) एवं वेगवान् हो कर (पुरु-मेधः चित्) बहुत से शत्रुओं का नाश करता हुआ वा बहु-यज्ञ होकर (तकवे) शरणागत को (नरं दात्) उत्तम नायक प्रदान करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    माँश्चत्व सरसि प्रधन्व

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम! (अया) = इस (पवा) = अपनी पवित्र करनेवाली धारा से (एना) = इन (वसूनि) = वसुओं को (पवस्व) = प्राप्त करा । (माँश्चत्वे) = अभिमन्यमान अभिमान आदि शत्रुओं के चातक [विनाशक] (सरसि) = ज्ञानजल में (प्रधन्व) = तू गतिवाला हो । तू हमें उस ज्ञान को प्राप्त करा जो अहंकार आदि शत्रुओं का विनाश कर देता है। हे सोम ! तेरी कृपा से (अत्र) = यहाँ हमारे जीवन में (ब्रनः चित्) = निश्चय से महान् आदित्य हो । यह सोमरक्षक पुरुष (वातः न जूतः) = वायु के समान सदा कर्म में प्रेरित हो । और (चित्) = निश्चय से (पुरुमेध:) = खूब यज्ञशील हो अथवा पालक व पूरक बुद्धि वाला हो। यह सुरक्षित सोम (तकवे) = गतिशील पुरुष के लिये (नरं दात्) = प्रगतिशील सन्तान को देनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम वसुओं को और अभिमान विनाशक ज्ञानधनों को प्राप्त कराता है । सोमरक्षण से जीवन में ज्ञान सूर्य का उदय होता है, वायु के समान क्रियाशीलता उत्पन्न होती है, बुद्धि की वृद्धि होती है व उत्तम सन्तान मिलती है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Generous, refulgent Soma spirit of beauty, peace and glory, sanctify us by these streams of grace. In the ocean depths of this honourable universe, energise and move all forms of wealth and peaceful settlements and consecrate us in the space of divine voice and wisdom. Spirit of the expansive universe, dynamic like the stormy winds, high-priest of cosmic yajna for all, bless us with a settled state of humanity in the vibrant system of a volatile world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक शक्तिसंपन्न होतात ते ईश्वराची प्रार्थना करतात व परमेश्वर त्यांना अवश्य ऐश्वर्यसंपन्न करतो. ॥५२॥

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