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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 16
    ऋषिः - व्याघ्रपाद्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जु॒ष्ट्वी न॑ इन्दो सु॒पथा॑ सु॒गान्यु॒रौ प॑वस्व॒ वरि॑वांसि कृ॒ण्वन् । घ॒नेव॒ विष्व॑ग्दुरि॒तानि॑ वि॒घ्नन्नधि॒ ष्णुना॑ धन्व॒ सानो॒ अव्ये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒ष्ट्वी । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । सु॒ऽपथा॑ । सु॒ऽगानि॑ । उ॒रौ । प॒व॒स्व॒ । वरि॑वांसि । कृ॒ण्वन् । घ॒नाऽइ॑व । विष्व॑क् । दुः॒ऽइ॒तानि॑ । वि॒ऽघ्नन् । अधि॑ । स्नुना॑ । ध॒न्व॒ । सानौ॑ । अव्ये॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुष्ट्वी न इन्दो सुपथा सुगान्युरौ पवस्व वरिवांसि कृण्वन् । घनेव विष्वग्दुरितानि विघ्नन्नधि ष्णुना धन्व सानो अव्ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जुष्ट्वी । नः । इन्दो इति । सुऽपथा । सुऽगानि । उरौ । पवस्व । वरिवांसि । कृण्वन् । घनाऽइव । विष्वक् । दुःऽइतानि । विऽघ्नन् । अधि । स्नुना । धन्व । सानौ । अव्ये ॥ ९.९७.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 16
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! भवान् (वरिवांसि) धनानि (कृण्वन्) अस्मासु सञ्चिन्वन् (नः, पवस्व) अस्मान् रक्षतु (जुष्ट्वी) मत्प्रार्थनाभिः प्रसन्नो भवान् (सुपथा, सुगानि) सुखगम्यानां वैदिकधर्ममार्गाणामुपदेष्टा भवतु (उरौ) विस्तीर्णे (सानौ, अव्ये) रक्षणपथे (विष्वक् दुरितानि) विषमादपि विषमं पापं (घना इव) मेघानिव (विघ्नन्) नाशयन् (स्नुना) स्वीयानन्दमयधाराभिः (अधि, धन्व) प्राप्नोतु ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्दो) हे स्वप्रकाश परमात्मन् ! आप (वरिवांसि) धनों का प्रदान (कृण्वन्) करते हुए (नः) हमारी (पवस्व) रक्षा करें और (जुष्ट्वी) हमारी प्रार्थनाओं से प्रसन्न हुए आप (सुपथा) सुन्दर मार्ग और (सुगानि) सरल वैदिक धर्म्म के रास्तों का उपदेश करें। (उरौ) विस्तीर्ण (सानौ, अव्ये) रक्षा के पथ में (विष्वग्दुरितानि) विषम से विषम पापों को (घना इव) बादलों के समान (विघ्नन्) नाश करते हुए (स्नुना) अपनी आनन्दमय धाराओं से (अधिधन्व) प्राप्त हों ॥१६॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मा का प्रीति से सेवन करते हैं अर्थात् सर्वोपरि प्रिय एकमात्र परमात्मा ही जिनको प्रतीत होता है, वे कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी होकर इस संसार में स्वतन्त्रतापूर्वक विचरते हैं ॥१६॥

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    विषय

    उसके कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (इन्दो) ऐश्वर्य, दीप्ति और तेज से सम्पन्न ! तू (सुपथा) उत्तम मार्ग से (नः) हमारे (सुगानि वरिवांसि) सुख से प्राप्त होने योग्य उत्तम २ धनों को (जुष्टवी) प्राप्त होकर और उनको (नः) हमारे लिये भी (सुगानि कृण्वन्) सुख से प्राप्त होने योग्य करता हुआ अथवा (सुगानि सुपथा जुष्टवी) सुख से गमन योग्य उत्तम वैदिक मार्गों को सेवन करके (उरौ) बड़े भारी परिमाण में (नः वरिवांसि कृण्वन्) हमें नाना धनैश्वर्य प्रदान करता हुआ, (विश्वक्) सर्व प्रकार के और सर्वत्र (घना इव दुरुतानि विध्नन्) घनीभूत बुरे पापाचारों को विनाश करता हुआ (स्नुना) अपने प्रवाही, शुद्ध-पवित्रकारक धारा से (अन्ये सानो अधि धन्व) रक्षकोचित पद पर प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    दुरितानि विघ्नन्

    पदार्थ

    हे (इन्दो) = सोम ! (जुष्ट्वी) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का सेवन करता हुआ तू (नः) = हमारे लिये (सुपथा) = उत्तम मार्ग से (वरिवांसि) = धनों को (सुगानि) = सुखेन प्राप्तव्य (कृण्वन्) = करता हुआ (उरौ) = विशाल हृदय में (पवस्व) = प्राप्त हो सोमरक्षण से प्रभुस्तवन की वृत्ति उत्पन्न होती है, सुपथ से ही धनों के अर्जन का विचार बना रहता है, हृदय की विशालता प्राप्त होती है । हे सोम ! तू (घनः इव) = लोहमय आयुध से ही (मानो विष्वक्) = सब ओर (दुरितानि) = बुराइयों को (विघ्नन्) = नष्ट करता हुआ, (अव्ये) = रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष में (ष्णुना) = अपने प्रवाह से (सानो अधि) = शिखर प्रदेश में, मस्तिष्क रूप में (धन्व) = गतिवाला हो । मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर, हे सोम ! तू ज्ञानाग्नि को दीप्त करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ-सोमरक्षक पुरुष प्रभुस्तवन की वृत्ति वाला होता है, सुपथ से ही धनार्जन करता है, विशाल हृदयवाला होता है, दुरितों से दूर रहता है, दीप्त ज्ञानाग्नि वाला बनता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indu, refulgent Soma, happy and kind, flow and purify us, creating simple and straight paths of living in the wide world and giving us honest and virtuous wealth and honours of our choice. Destroying all evils of the world as thunder of the clouds, let ceaseless streams of joy flow for us and protect us on top of the protective world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक प्रेमाने परमात्म्याची उपासना करतात. अर्थात्, सर्वश्रेष्ठ परमात्म्याची ज्यांना अनुभूती होते ते कर्मयोगी व ज्ञानयोगी बनून या जगात स्वतंत्रपणे हिंडतात, फिरतात. ॥१६॥

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