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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वृषगणो वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र हं॒सास॑स्तृ॒पलं॑ म॒न्युमच्छा॒मादस्तं॒ वृष॑गणा अयासुः । आ॒ङ्गू॒ष्यं१॒॑ पव॑मानं॒ सखा॑यो दु॒र्मर्षं॑ सा॒कं प्र व॑दन्ति वा॒णम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । हं॒सासः॑ । तृ॒पल॑म् । म॒न्युम् । अच्छ॑ । अ॒मात् । अस्त॑म् । वृष॑ऽगणाः । अ॒या॒सुः॒ । आ॒ङ्गू॒ष्य॑म् । पव॑मानम् । सखा॑यः । दुः॒ऽमर्ष॑म् । सा॒कम् । प्र । व॒द॒न्ति॒ । वा॒णम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र हंसासस्तृपलं मन्युमच्छामादस्तं वृषगणा अयासुः । आङ्गूष्यं१ पवमानं सखायो दुर्मर्षं साकं प्र वदन्ति वाणम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । हंसासः । तृपलम् । मन्युम् । अच्छ । अमात् । अस्तम् । वृषऽगणाः । अयासुः । आङ्गूष्यम् । पवमानम् । सखायः । दुःऽमर्षम् । साकम् । प्र । वदन्ति । वाणम् ॥ ९.९७.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृषगणाः) विद्वत्सङ्घाः (हंसासः) हंसा इव विचरन्तः (तृपलं) द्रुतं (मन्युं, अच्छ, अमात्, अस्तं) दुष्टानां सम्यग्दमनकर्तारं परमात्मानं (आङ्गूष्यं) सर्वलक्ष्यं (पवमानं) पावयितारं (प्र अयासुः) प्राप्नुवन्ति, ततः (सखायः) मिथो मैत्रीभावं वर्द्धयन्तः (वाणं) भजनीयं (दुर्मर्षं) दुःखलभ्यं तं (साकं) सहैव (प्र वदन्ति) वर्णयन्ति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृषगणाः) विद्वानों के गण (हंसासः) हंसों के समान विचरते हुए (तृपलम्) शीघ्र ही (मन्युमच्छ, अमात्, अस्तम्) दुष्टों के दमन करनेवाले उक्त परमात्मा को (आङ्गूष्यं) जो सबका लक्ष्य है और (पवमानम्) सबको पवित्र करनेवाला है, उसको (प्रायासुः) प्राप्त होते हैं, तदनन्तर (सखायः) परस्पर मैत्रीभाव से संगत होते हुए (वाणम्) भजनीय (दुर्मर्षम्) जो दुःख से प्राप्त होने योग्य लक्ष्य है, उस लक्ष्य के (साकम्) साथ-साथ (प्रवदन्ति) वर्णन करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्मा के सद्गुणों को परम प्रेम से धारण करते हैं, वे मानो परमात्मा के साथ मैत्री करते हैं। वास्तव में परमात्मा किसी का शत्रु वा मित्र नहीं कहा जा सकता ॥८॥

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    विषय

    परमहंसों की प्रभु-शरण-प्राप्ति, पक्षान्तर में आंगृष्य हंस आत्मा और वृषगण का विवरण।

    भावार्थ

    (हंसासः) हंसों के समान सत् और असत् का नीर क्षीरवत् विवेक करने वाले, अपने अन्तः और बाह्य शत्रुओं का नाश करने वाले, विद्वान्, योगाभ्यासी और वीर (वृषगणाः) बलवान् जन, (अमात्) रोगवत् पीड़ादायी जन्ममरणमय सांसारिक दुःख और शत्रु वर्ग से भयभीत होकर (अस्तं मन्युम्) गृह के समान शरण सुख देने वाले ज्ञानवान् शत्रु के स्तम्भक बलशाली (तृपलं) क्षिप्र कार्यकारी, सब को अन्न सुखादि से तृप्त करने वाले, (तं) उस प्रभु को (अयासुः) प्राप्त होते हैं। वे (सखायः) उसके मित्र होकर (आंगूष्यं) सब से शरणवत् प्राप्त और स्तुति करने योग्य, (पवमानं) परम पावन, अन्यों को पवित्र करने वाले, (दुर्मर्षंः) प्रतिपक्षी जनों से पराजित न होने वाले, असह्य विक्रमशील, (वाणम्) सेवनीय, शत्रुओं के नाशक पुरुष को प्राप्त कर (साकं), (प्र वदन्ति) उसका एक साथ गुणगान करते हैं। अध्यात्म में—आत्मा अंग २ में बसने से आंगूष्य है। भोक्ता होने से ‘वाण’ है। ज्ञानवान् होने से ‘मन्यु’ है। प्राण गतिशील होने से ‘हंस’, बलवान् होने वा वृषरूप, देहवाहन आत्मा के गण होने से ‘वृषगण’ हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    तृपलं मन्युं अच्छ

    पदार्थ

    (हंसास:) = [हन हिंसागत्योः] पाप का विनाश करनेवाले (वृषगणाः) = [वृष-धर्म] धर्म का सदा परिगान करनेवाले, विचार करनेवाले उपासक (अमात्) = इन काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के भय से कहीं हमें ये आक्रान्त न कर लें इस विचार से, (तृपलम्) = [क्षिप्र प्रहारिणं] इन पर शीघ्र प्रहार करनेवाले (मन्युम्) = ज्ञान के पुञ्ज [मनु अवबोधने] प्रभु की (अच्छ) = ओर (अस्तम्) = अपने घर की ओर (प्र अयासुः) = प्रकर्षेण आनेवाले होते हैं। ये 'इस वृषागण' प्रभु रूप गृह की ओर आते हैं जिससे वहाँ सुरक्षित हुए हुए वे शत्रुओं से पीड़ित न हों। वहाँ घर में स्थित हुए हुए (सखायः) = ये मित्र (साकं) = मिलकर (प्रवदन्ति) = उस प्रभु का गुणगान करते हैं, जो (आंगूष्यम्) = स्तुति के योग्य हैं, (पवमानम्) = स्तोताओं के जीवनों को पवित्र बनानेवाले हैं, (दुर्मर्षम्) = बुरी तरह से काम-क्रोधादि शत्रुओं का मर्षण करनेवाले हैं और (वाणम्) = ज्ञान की वाणियों के स्वामी हैं अथवा संभजनीय हैं। ये प्रभु ही तो हमें शत्रुओं के आक्रमण के भय से बचाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्तवन ही शत्रुभय से बचने का उपाय है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like hansa birds of discriminative taste by instinct, judicious poets and scholars spontaneously come home to passion and ardour of thought and imagination free from fear and violence and, together in unison as a band of friends, generous and mighty of power and understanding, sing and celebrate the adorable, pure and purifying unforgettable Soma source of beauty, music and poetry.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे पुरुष परमेश्वराच्या सद्गुणांना परम प्रेमाने धारण करतात ते जणू परमेश्वराबरोबर मैत्री करतात. वास्तविक परमेश्वर कोणाचा शत्रू किंवा मित्र नाही. ॥८॥

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