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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 13
    ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वृषा॒ शोणो॑ अभि॒कनि॑क्रद॒द्गा न॒दय॑न्नेति पृथि॒वीमु॒त द्याम् । इन्द्र॑स्येव व॒ग्नुरा शृ॑ण्व आ॒जौ प्र॑चे॒तय॑न्नर्षति॒ वाच॒मेमाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषा॑ । शोमः॑ । अ॒भि॒ऽकनि॑क्रदत् । गाः । न॒दय॑न् । ए॒ति॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । इन्द्र॑स्यऽइव । व॒ग्नुः । आ । शृ॒ण्वे॒ । आ॒जौ । प्र॒ऽचे॒तय॑न् । अ॒र्ष॒ति॒ । वाच॑म् । आ । इ॒माम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषा शोणो अभिकनिक्रदद्गा नदयन्नेति पृथिवीमुत द्याम् । इन्द्रस्येव वग्नुरा शृण्व आजौ प्रचेतयन्नर्षति वाचमेमाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषा । शोमः । अभिऽकनिक्रदत् । गाः । नदयन् । एति । पृथिवीम् । उत । द्याम् । इन्द्रस्यऽइव । वग्नुः । आ । शृण्वे । आजौ । प्रऽचेतयन् । अर्षति । वाचम् । आ । इमाम् ॥ ९.९७.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 13
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (शोणः) तेजस्वी स परमात्मा (वृषा) आनन्दानां वर्षकः (गाः, अभि, कनिक्रदत्) लोकलोकान्तराण्यभि शब्दायमानः (द्यां) द्युलोकं (उत, पृथिवीं) भूलोकं च (नदयन्) समृद्धं कुर्वन् (एति) प्राप्नोति (आजौ) धर्मविषये जीवात्मानं (प्रचेतयन्) बोधयन् (इमां, वाचं) इमां वेदवाचं (अर्षति) प्राप्नोति तस्य (वग्नुः) शब्दः (इन्द्र इव) विद्युदिव (आ शृण्वे) श्रूयते ॥१३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (शोणः) वह तेजस्वी परमात्मा (वृषा) आनन्दों का वर्षक है। (गाः, अभि, क्रनिक्रदत्) लोक-लोकान्तरों के समक्ष शब्दायमान होता हुआ (द्याम्) द्युलोक (उत) और (पृथिवीम्) पृथिवीलोक को (नदयन्) समृद्धि को प्राप्त कराता हुआ (एति) विराजमान होता है, (आजौ) धर्म्मविषय में जीवात्मा को (प्रचेतयन्) बोधन कराता हुआ (इमां, वाचम्) इस वेदरूपी वाणी को (अर्षति) प्राप्त होता है और उसका (वग्नुः) शब्द (इन्द्र इव) विद्युत् के समान (शृण्वे) सुना जाता है ॥१३॥

    भावार्थ

    सब आनन्दों की राशि एकमात्र परमात्मा ही है, इसलिये उसी में चित्तवृत्ति का निरोध करके ब्रह्मानन्द का उपभोग करना चाहिये ॥१३॥

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    विषय

    राजसभा के स्वामिवत् आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    वह महान् आत्मा (वृषा) बलवान् सुखों का वर्षक, (शोणः) तेजस्वी, (गाः अभि कनिक्रदद्) नाना वाणियों का उपदेश करता हुआ उपदेशक वत् नाना सूर्यो के सञ्चालक प्रभुवत्, नाना भूमियों के शासक के तुल्य इन्द्रियों को वश करता हुआ आत्मा, (पृथिवीम् उत द्याम्) पृथिवी, आकाशवत् देह और मस्तक भाग को वा भूमिस्थ प्रजा और राजसभा को (नदयन्) अपने अनुकूल ध्वनित एवं समृद्ध करता हुआ आता हैं (आजौ) युद्ध एवं सर्वोपरि पद पर (इन्द्रस्य इव) जलप्रद मेघ के तुल्य (वग्नुः आशृण्वे) गम्भीर वचन, सर्वत्र सुनाई देवे, तब वह (इमाम् वाचम् प्रचेतयन् अर्षति) सबको उत्तम ज्ञान प्रदान करता हुआ इस वाणी को प्रकट करता है, स्वयं जानता अन्यों को जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वृषा शोण:

    पदार्थ

    यह सोम (वृषा) = सब अंगों में शक्ति का सेचन करनेवाला है, (शोण:) = तेजस्वी है । (गाः अभिकनिक्रदद्) = ज्ञान की वाणियों का हमारे में उच्चारण करता है, यह उन ज्ञान की वाणियों को हमें सुनने के योग्य बनाता है जो कि प्रभु से हृदयों में उच्चारित हो रही हैं। (नदयन्) = यह हमें प्रभु के स्तुति-वचनों का उच्चारण करनेवाला बनाता हुआ (पृथिवीं उत द्यां एति) = इस शरीररूप पृथिवी व मस्तिष्करूप द्युलोक में प्राप्त होता है। शरीर को यह सशक्त बनाता है, तो मस्तिष्क को दीप्तिमय । इस सोम के रक्षण के होने पर (आजौ) = संग्राम में (इन्द्रस्य इव) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले सेनापति के शब्द की तरह इस सोम का (वग्ग्रुः) = शब्द (आशृण्व) = सर्वतः सुनाई पड़ता है । यह सोम शरीर में रोगकृमियों को व काम-क्रोध आदि आसुरभावों को विनष्ट करनेवाला होता है। यह सोम (इमां वाचम्) = प्रभु की इस वाणी को (प्रचेतयन्) = अच्छी प्रकार हमारे ज्ञान का विषय बनाता हुआ (आ अर्षति) = शरीर में सर्वत्र गतिवाला होता है । सोमरक्षण हमें तीव्र बुद्धि बनाकर प्रभु की वाणी को समझने के योग्य बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें शक्ति देता है, प्रभु की प्रेरणा को सुनने के योग्य करता है, हमें प्रभु का स्तोता बनाता है, शरीरस्थ शत्रुओं का नाश करता है और वेदवाणी को समझने योग्य बनाता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Generous, joyous and refulgent Soma spirit divine pervades the stars and planets and vibrates in the sun rays, making the heaven and earth resound. It is the very voice of Indra, lord omnipotent, heard in the dynamics of existence, awakening the spirit, and it inspires this holy speech to burst forth in adoration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व आनंदाची राशी एकमेव परमात्माच आहे. त्यामुळे त्यातच चित्तवृत्तीचा निरोध करून ब्रह्मानंदाचा उपभोग घेतला पाहिजे. ॥१३॥

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