ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 3
समु॑ प्रि॒यो मृ॑ज्यते॒ सानो॒ अव्ये॑ य॒शस्त॑रो य॒शसां॒ क्षैतो॑ अ॒स्मे । अ॒भि स्व॑र॒ धन्वा॑ पू॒यमा॑नो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ऊँ॒ इति॑ । प्रि॒यः । मृ॒ज्य॒ते॒ । सानौ॑ । अव्ये॑ । य॒शःऽत॑रः । य॒शसा॑म् । क्षैतः॑ । अ॒स्मे इति॑ । अ॒भि । स्व॒र॒ । धन्व॑ । पू॒यमा॑नः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
समु प्रियो मृज्यते सानो अव्ये यशस्तरो यशसां क्षैतो अस्मे । अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ऊँ इति । प्रियः । मृज्यते । सानौ । अव्ये । यशःऽतरः । यशसाम् । क्षैतः । अस्मे इति । अभि । स्वर । धन्व । पूयमानः । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ ९.९७.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
यशस्विमध्ये यः (यशस्तरः) अतिविद्वानस्ति (क्षैतः) पृथिव्यादिलोकेषु (यशसां, प्रियः) यशः कामयमानः (अव्ये, सानौ) रक्षाया उच्चशिखरे (सम्, उ, मृज्यते) साधुशोधितः एवम्भूतो विद्वान् (अस्मे) अस्मभ्यम् (धन्वा) अन्तरिक्षे (अभि स्वर) सदुपदेशं कुर्यात् (पूयमानः) सर्वेषां पावयिता विद्वान् शश्वत्सत्कर्त्तव्यः। हे मनुष्याः ! यूयं पूर्वोक्तविदुषः प्रति एवं ब्रूयात् (स्वस्तिभिः) कल्याणवाग्भिः (यूयम्) भवन्तः (सदा) सर्वदा (नः) अस्मान् (पात) रक्षन्तु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
यशस्वियों के मध्य में जो (यशस्तरः) अत्यन्त विद्वान् है और (क्षैतः) पृथिव्यादि लोकों में (यशसां, प्रियः) यशों को चाहनेवाला है, (सानौ, अव्ये) रक्षा के उच्च शिखर में जो (समु, मृज्यते) भली-भाँति मार्जन किया गया है, उक्त गुणोंवाला विद्वान् (अस्मे) हमारे लिये (धन्वा) अन्तरिक्ष में (अभि, स्वर) सदुपदेश करे। (पूयमानः) सबको पवित्र करनेवाला विद्वान् सदा सत्कारयोग्य होता है। हे मनुष्यों ! तुम लोग उक्त विद्वानों के प्रति इस प्रकार का स्वस्तिवाचन कहो कि (स्वस्तिभिः) कल्याणरूप वाणियों के द्वारा (यूयं) आप लोग (सदा) सदैव (नः) हमारी (पात) रक्षा करें ॥३॥
भावार्थ
स्वस्तिवाचन द्वारा मङ्गल को करनेवाले पुरुष सदैव उन्नतिशील होते हैं ॥३॥
विषय
अभिषिक्त के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(अस्मे) हमारे द्वारा (अव्ये सानौ) भूमि के सर्वोच्च प्रजापालक पद पर (प्रियः) सर्वप्रिय, सबको प्रसन्न, तृप्त करनेवाला, (यशसां यशस्तरः) यशस्वी जनों के बीच अधिक यशस्वी, (क्षैतः) इस भूमि का ही निवासी पुरुष (संमृज्यते) अभिषेक किया जाना उचित है। हे उत्तम शासक ! तू (पूयमानः) अभिषिक्त होता हुआ, (धन्वस्व) आकाश में मेघवत् इस भूमि में (अभि स्वर) सर्वत्र गर्जना या घोषणा कर। हे विद्वान पुरुषो ! आप लोग (नः सदा स्वस्तिभिः पात) हमें सदा उत्तम सुखकारी उपायों से पालन करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
यशसां यशस्तरः
पदार्थ
(प्रियः) = प्रीति व आनन्द का जनक यह सोम (उ) = निश्चय से (अव्ये) = रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष में (सानो) = शिखर पर, अर्थात् मस्तिष्क में सं मृज्यते सम्यक् शुद्ध किया जाता है। स्वाध्याय की प्रवृत्ति ही सोम को वासनाओं से मलिन होने से बचाती है। यह शुद्ध हुआ हुआ सोम (अस्मे) = हमारे लिये (यशसां यशस्तरः) = उत्तम यशस्वियों में भी यशस्विता का कारण बनता है । (क्षैत:) = इस प्रकार उत्तम निवास व गति का साधक होता है [क्षि निवासगत्योः] हे सोम ! तू (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ (धन्वा) = अन्तरिक्ष में, हृदयान्तरिक्ष में (अभिस्वर) = प्रातः - सायं प्रभु-स्तुति के शब्दों का उच्चारण करनेवाला हो । हे सोमकणो ! (यूयं) = तुम (सदा) = सब कालों में (न:) = हमें (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा (पात) = रक्षित करनेवाले होवो। इन सोमकणों के द्वारा हम सुरक्षित सुन्दर जीवनवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण का यही साधन है कि हम शरीर के शिखर मस्तिष्क में इसे ज्ञानाग्नि का ईंधन बनायें, स्वाध्यायशील हों। सुरक्षित सोम हमें यशस्वी बनाता है, यह हमें प्रभुस्मरण की वृत्ति वाला बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma spirit of power and poetic creativity, exalted on top of protection, defence and advancement, honoured of the honourable, of the earth earthy for our sake, shine and resound across the spaces. O divinities, pray protect and promote us with all round well being and good fortune for all time.
मराठी (1)
भावार्थ
स्वस्तिवाचनाद्वारे मंगल करणारा पुरुष सदैव उन्नतिशील असतो. ॥३॥
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