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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 4
    ऋषिः - इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र गा॑यता॒भ्य॑र्चाम दे॒वान्त्सोमं॑ हिनोत मह॒ते धना॑य । स्वा॒दुः प॑वाते॒ अति॒ वार॒मव्य॒मा सी॑दाति क॒लशं॑ देव॒युर्न॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । गा॒य॒त॒ । अ॒भि । अ॒र्चा॒म॒ । दे॒वान् । सोम॑म् । हि॒नो॒त॒ । म॒ह॒ते । धना॑य । स्वा॒दुः । प॒वा॒ते॒ । अति॑ । वार॑म् । अव्य॑म् । आ । सी॒दा॒ति॒ । क॒लश॑म् । दे॒व॒ऽयुः । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र गायताभ्यर्चाम देवान्त्सोमं हिनोत महते धनाय । स्वादुः पवाते अति वारमव्यमा सीदाति कलशं देवयुर्न: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । गायत । अभि । अर्चाम । देवान् । सोमम् । हिनोत । महते । धनाय । स्वादुः । पवाते । अति । वारम् । अव्यम् । आ । सीदाति । कलशम् । देवऽयुः । नः ॥ ९.९७.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे मनुष्याः ! यूयं (महते, धनाय) महैश्वर्यप्राप्तये (देवान्) विदुषः (प्र गायत) स्तुत (अभि अर्चाम) तानेव सत्कुरुत (सोमं) तत्र च सौम्यस्वभावं विद्वांसं (हिनोतु) प्रेरयत, यतः युष्मान् स समुपदिशतु (स्वादुः) आनन्दप्रदपदार्थाय च (पवाते) पावयतु (वारं, अव्यं) वरणीयः रक्षकश्च स विद्वान् (नः) अस्माकं (कलशं) हृदये (आ सीदति) स्थिरो भवतु ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे मनुष्यों ! तुम लोग (महते, धनाय) बड़े ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (देवान्) विद्वान् लोगों का (प्र, गायत) स्तवन करो (अभ्यर्चामः) और उन्हीं का सत्कार करो और (सोमं) उनमें जो सौम्यगुणसम्पन्न विद्वान् हैं, उनको (हिनोत) प्रेरणा करो कि वह तुमको सदुपदेश करें और (स्वादुः) आनन्ददायक पदार्थों के लिये (पवाते) पवित्र करें। (देवयुः) दिव्यगुण और (वारं) वरणीय (अव्यं) रक्षक उक्त विद्वान् (नः) हमारे (कलशं) अन्तः करण में (आसीदति) स्थिर हों ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करता है कि हे पुरुषों ! तुम कल्याण की प्राप्ति के लिये विद्वानों का सत्कार करो ॥४॥

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    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (प्र गायत) उत्तम रीति से गान करो या उत्तम रीति से उपदेश करो, हम लोग (देवान् प्र अर्चाम) विद्वानों का अच्छी प्रकार आदर करें। आप लोग (महते धनाय) बड़े भारी ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये (प्र हिनोत) प्रेरित करो। वह (स्वादुः) स्वकीय बन्धुजनों को एवं ‘स्व’ परम ऐश्वर्य को सब प्रकार से ग्रहण करने और भोगने में समर्थ होकर (अव्यं वारम्) रक्षक के सर्वोच्च वरणीय पद को, (पवाते) सबसे बढ़कर, प्राप्त करे। वह (देवेयुः) विद्वानों, और शुभगुणों की कामना करता हुआ, (नः कलशम् आ सीदाति) हमारे स्नान योग्य कलश के नीचे आ विराजे। हम उसका अभिषेक करें। अध्यात्म में—अपना ही कर्मफल भोगने से आत्मा ‘स्वादु’ है। प्राण और पार्थिव आवरण देह में आता है और देव अर्थात् प्राणों का स्वामी होकर इस देह में विराजता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    महते धनाय

    पदार्थ

    हे जीवो! (प्रगायत) = खूब ही प्रभु का गायन करो और हम सब (देवान् अभ्यर्चाम) = 'माता, पिता, आचार्य' आदि देवों का आदर करें, शुश्रूषण करें। इसी प्रकार हम वासना से बच सकेंगे वासना से ऊपर उठकर (सोमं हिनोत) = सोम को अपने अन्दर प्रेरित करो । यह अन्दर प्रेरित हुआ- हुआ सोम तुम्हारे (महते धनाय) = महान् ऐश्वर्य के लिये होगा । सोम ही तो सब कोशों को ऐश्वर्ययुक्त करता है। यह सोम (स्वादुः) = हमारे जीवनों को मधुर बनानेवाला है यह (वारम्) = वासनाओं का निवारण करनेवाले पुरुष को, (अव्यम्) = रक्षण करने वालों में उत्तम पुरुष को (अति) = अतिशयेन (पवाते) = प्राप्त होता है। (देवयुः) = दिव्यगुणों को हमारे साथ जोड़नेवाला यह सोम (नः कलशम्) = हमारे शरीररूपी कलश में (आसीदाति) = आसीन होता है। शरीर में स्थिर हुआ हुआ यह सोम ही शरीर की सब कलाओं का साधक होता है। यही इसे 'स-कल' [पूर्ण] बनाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्तवन व माता-पिता, आचार्य आदि देवों का अर्चन हमें सोमरक्षण के योग्य बनाता है। क्योंकि इस प्रकार हम वासनाओं से बचे रहते हैं । सुरक्षित सोम हमारे महान् ऐश्वर्य का साधक होता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sing and celebrate, let us honour the divinities and exhort Soma for great victory and achievement of wealth, honour and excellence. Sweet and lovable, Soma rises to the protective position of choice and, loving the divinities, it abides in the right position at the centre.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो की, हे पुरुषांनो! तुम्ही कल्याणाच्या प्राप्तीसाठी विद्वानांचा सत्कार करा. ॥४॥

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