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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 33
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒व्यः सु॑प॒र्णोऽव॑ चक्षि सोम॒ पिन्व॒न्धारा॒: कर्म॑णा दे॒ववी॑तौ । एन्दो॑ विश क॒लशं॑ सोम॒धानं॒ क्रन्द॑न्निहि॒ सूर्य॒स्योप॑ र॒श्मिम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व्यः । सु॒ऽप॒र्णः । अव॑ । च॒क्षि॒ । सो॒म॒ । पिन्व॑न् । धाराः॑ । कर्म॑णा । दे॒वऽवी॑तौ । आ । इ॒न्दो॒ इति॑ । वि॒श॒ । क॒लश॑म् । सो॒म॒ऽधान॑म् । क्रन्द॑न् । इ॒हि॒ । सूर्य॑स्य । उप॑ । र॒श्मिम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिव्यः सुपर्णोऽव चक्षि सोम पिन्वन्धारा: कर्मणा देववीतौ । एन्दो विश कलशं सोमधानं क्रन्दन्निहि सूर्यस्योप रश्मिम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव्यः । सुऽपर्णः । अव । चक्षि । सोम । पिन्वन् । धाराः । कर्मणा । देवऽवीतौ । आ । इन्दो इति । विश । कलशम् । सोमऽधानम् । क्रन्दन् । इहि । सूर्यस्य । उप । रश्मिम् ॥ ९.९७.३३

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 33
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    हे परमात्मन् ! भवान् (दिव्यः) दिव्यस्वरूपः (सुपर्णः) चेतनः (अव, चक्षि) मां साधूपदिशतु (सोम) हे सौम्य ! (देववीतौ) देवानां यज्ञे (कर्मणा, पिन्वन्) साधुरक्षया पोषयन् (धाराः) स्वकृपादृष्ट्या पोषयतु (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप ! भवान् (सोमधानं) सौम्यगुणानां धारकः (कलशं, विश) अन्तःकरणं प्रविशतु (सूर्यस्य, रश्मिं) ज्ञानकरान् (क्रन्दन्) उपदिशन् (उप, एहि) प्राप्नोतु ॥३३॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमात्मन् ! आप (दिव्यः) दिव्यस्वरूप हैं (सुपर्णः) चेतन हैं (अवचक्षि) आप हमको सदुपदेश करें, (सोम) हे सोम ! (देववीतौ) देवताओं के यज्ञ में (कर्मणा) रक्षा से (पिन्वन्) पुष्ट करते हुए आप (धाराः) अपनी कृपामयी वृष्टि से पुष्ट करें, (इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (सोमधानम्) सोमगुण के धारण करनेवाले (कलशम्) अन्तःकरण को (विश) प्रवेश करें और (सूर्यस्य रश्मिम्) ज्ञान की रश्मियों का (क्रन्दन्) उपदेश करते हुए (उप, एहि) आकर प्राप्त हों ॥३३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में परमात्मा के स्वरूप का वर्णन किया है कि परमात्मा स्वतः ज्ञानस्वरूप है अर्थात् स्वतःप्रकाश है ॥३३॥

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    विषय

    अग्रणी विद्वान् के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (सोम) उत्तम शास्तः ! उपदेष्टः ! (देव-वीतौ) विद्वान् और ज्ञानार्थी जनों के एकत्र प्राप्ति स्थानों में (कर्मणा) सत्कर्म के साथ साथ (धाराः पिन्वन्) वाणियों को भी प्रदान करता हुआ, तू (दिव्यः) ज्ञान में कुशल, (सुपर्णः) उत्तम ज्ञानवान् (अव चक्षि) हम पर कृपा दृष्टि कर। हे (इन्दो) दयालो ! हे ऐश्वर्यवन् ! हे तेजस्विन् ! (सोम-धानं कलशं) उत्तम विद्वान् को उत्तम पद पर स्थापन करने वाले कलशों के बीच (विश) स्नानार्थ प्रवेश कर। और (क्रन्दन्) उपदेशादि प्रदान करता हुआ (सूर्यस्य रश्मिम् उप इहि) सूर्य के प्रकाश को प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सोमधानं कलशम् आविश

    पदार्थ

    हे (सोम) = वीर्य! तू (दिव्यः) = हमारे जीवनों को प्रकाशमय [दिव्य] बनानेवाला है, (सुपर्णः) = उत्तमता से पालन व पूरण करनेवाला है। (देववीतौ) = दिव्यगुणों की प्राप्ति के निमित्त (कर्मणा) = क्रियाशीलता के साथ (धाराः पिन्वन्) = धारण शक्तियों को पूरित करता हुआ तू (अवचक्षि) = सब रोग आदि को दूर भगानेवाला होता है। [to look down upon ] इन रोगादि घृणा की दृष्टि से तू देखनेवाला होता है (इन्दो) = हे सोम ! तू (सोमधानम्) = प्रभु से सोम के आधार के रूप में बनाये गये (कलशम्) = इस शरीर कलश में (आविश) = तू समन्तात् प्रवेश वाला हो । तू (क्रन्दन्) = प्रभु का आह्वान करता हुआ (सूर्यस्य) = ज्ञानसूर्य की (रश्मिम्) = किरणों को उप इहि प्राप्त कर । तेरे रक्षण द्वारा हमारे जीवन में प्रभुस्तवन व ज्ञान दीप्त हो उठें।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम से 'क्रियाशक्ति, दिव्यगुण, प्रभुस्तवन व ज्ञानरश्मियाँ' प्राप्त हों ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Heavenly light, super-abundant spirit of peace, protection and divine bliss, O Soma, reveal yourself, speak and shine, and let the rising streams of your presence flow into our divine life-yajna with higher and higher potential. O Spirit of peace and protection, bliss and beauty, consecrate this heart-core of the soul open to Soma, awaiting, come resounding, and let the radiations of refulgent divinity illuminate and sanctify us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात परमेश्वराच्या स्वरूपाचे वर्णन केलेले आहे की परमेश्वर स्वत: ज्ञानस्वरूप आहे. अर्थात्, स्वत: प्रकाशमय आहे. ॥३३॥

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