ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 42
ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मत्सि॑ वा॒युमि॒ष्टये॒ राध॑से च॒ मत्सि॑ मि॒त्रावरु॑णा पू॒यमा॑नः । मत्सि॒ शर्धो॒ मारु॑तं॒ मत्सि॑ दे॒वान्मत्सि॒ द्यावा॑पृथि॒वी दे॑व सोम ॥
स्वर सहित पद पाठमत्सि॑ । वा॒युम् । इ॒ष्टये॑ । राध॑से । च॒ । मत्सि॑ । मि॒त्रावरु॑णा । पू॒यमा॑नः । मत्सि॑ । शर्धः॑ । मारु॑तम् । मत्सि॑ । दे॒वान् । मत्सि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । दे॒व॒ । सो॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मत्सि वायुमिष्टये राधसे च मत्सि मित्रावरुणा पूयमानः । मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि द्यावापृथिवी देव सोम ॥
स्वर रहित पद पाठमत्सि । वायुम् । इष्टये । राधसे । च । मत्सि । मित्रावरुणा । पूयमानः । मत्सि । शर्धः । मारुतम् । मत्सि । देवान् । मत्सि । द्यावापृथिवी इति । देव । सोम ॥ ९.९७.४२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 42
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पूयमानः) स शुद्धस्वरूपः परमात्मा (मित्रावरुणा) अध्यापकोपदेशकान् (राधसे) धनाय (मत्सि) उत्साहयति (वायुं, च) कर्मयोगिनं च (इष्टये) यज्ञाय (मत्सि) उत्साहयति (मारुतं) विद्वद्गणं (शर्धः) बलाय (मत्सि) उत्साहयति (देवान्) विदुषः (द्यावापृथिवी) द्युलोकपृथिवीलोकयोः विद्यायै (मत्सि) उत्साहयति। (देव) हे दिव्यस्वरूप ! (सोम) परमात्मन् ! (मत्सि) एवं सर्वान् स्वोपासकान् उत्साहयति भवान् ॥४२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पूयमानः) वह शुद्धस्वरूप परमात्मा (मित्रावरुणा) अध्यापक और उपदेशक को (राधसे) धन के लिये (मत्सि) उत्साहित करता है (च) और (वायुम्) कर्मयोगी को (इष्टये) यज्ञादि कर्मों के लिये (मत्सि) उत्साहित करता है और (मारुतम्) विद्वानों के गण को (शर्धः) बल के लिये (मत्सि) उत्साहित करता है और (देवान्) विद्वानों को (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक की विद्या के लिये (मत्सि) उत्साहित करता है। (देव) उक्त दिव्यस्वरूप (सोम) सर्वोत्पादक परमात्मन् ! आप उक्तप्रकार से पूर्वोक्त अधिकारियों को (मत्सि) उत्साहित करते हैं ॥४२॥
भावार्थ
परमात्मा उद्योगियों के हृदय में सर्वदा उत्साह उत्पन्न करता है। जिस प्रकार सूर्य्य चक्षुवाले लोगों का प्रकाशक है, इसी प्रकार अनुद्योगी परम आलसियों के लिये परमात्मा उद्योग-दीपक नहीं ॥४२॥
विषय
विद्रान् शासक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (देव सोम) दानशील तेजस्विन् ! उत्तम विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (इष्टये राधसे च) अपने इष्ट लाभ और साध्य कार्य या धन- लाभ के लिये (वायुम् मत्सि) बलवान्, वायुवत् सर्वप्रिय पुरुष को प्रसन्न कर। (पूयमानः) पवित्र वा अभिषिक्त होता हुआ (मित्रा-वरुणा मत्सि) मित्र और वरुण, स्नेही और श्रेष्ठ जनों को प्रसन्न कर। (मारुतं शर्धः मत्सि) प्रजा वा वैश्य वर्ग के बलवान् भाग को प्रसन्न कर। (देवान् मत्सि) वीरों, विद्वानों को प्रसन्न कर (द्यावा-पृथिवी मत्सि) सूर्य भूमि के तुल्य राजा और प्रजा वर्गों को प्रसन्न कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
मत्सि देवान्
पदार्थ
हे सोम ! तू (वायुम्) = गतिशील पुरुष को, निरन्तर कर्त्तव्य कर्मों में लगे हुए पुरुष को (इष्टये) = इष्ट प्राप्ति के लिये (च) = तथा (राधसे) = कार्यों में संसिद्धि के लिये अथवा ऐश्वर्यशक्ति के लिये (मत्सिः) = आनन्दित करता है । (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुम को सब के साथ स्नेह करनेवाले निर्दोष पुरुष को (मत्सि) = आनन्दित करता है । सोमरक्षण से ही स्फूर्ति व क्रियाशीलता उत्पन्न होती है । सोमरक्षण ही हमें सबके प्रति स्नेह व निर्दोषता की भावना वाला बनाता है। हे सोम ! तू (मारुतं शर्ध:) = प्राणों के बल को मत्सि आनन्दित करता है, समृद्ध करता है । (देवान् मत्सि) = दिव्य गुणों को हमारे में बढ़ाता है। हे (देव सोम) = प्रकाशमय सोम [वीर्य] तू (द्यावापृथिवी मत्सि) = द्युलोक व पृथिवीलोक को, मस्तिष्क व शरीर को मत्सि आनन्दित करता है । सोम के द्वारा शरीर ओजस्वी व मस्तिष्क ज्योतिर्मय बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'क्रियाशील, स्नेहयुक्त, निद्वेष, प्राण-बल-सम्पन्न, दिव्य गुणों वाला तथा दीप्त शरीर व मस्तिष्क वाला' बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O self-refulgent Soma, you energise the Vayu for its windy fulfilment and accomplishment of the purpose of creative evolution and, purifying and sanctifying as you are, you energise and fulfil the centripetal and centrifugal modes of energy. You energise the sense of courage, boldness and even defiance of stormy energy, you energise the senses, mind and intelligence, and you energise and fulfil the heaven, earth and the skies of space.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर उद्योगी माणसांच्या हृदयात सदैव उत्साह उत्पन्न करतो. जसा सूर्य नेत्रयुक्त माणसांचा प्रकाशक आहे तसा परमेश्वर आळशी लोकांसाठी उद्योग दीपक नाही. ॥४२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal