ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 7
ऋषिः - वृषगणो वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र काव्य॑मु॒शने॑व ब्रुवा॒णो दे॒वो दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति । महि॑व्रत॒: शुचि॑बन्धुः पाव॒कः प॒दा व॑रा॒हो अ॒भ्ये॑ति॒ रेभ॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । काव्य॑म् । उ॒शना॑ऽइव । ब्रु॒वा॒णः । दे॒वः । दे॒वाना॑म् । जनि॑म । वि॒व॒क्ति॒ । महि॑ऽव्रतः । शुचि॑ऽबन्धुः । पा॒व॒कः । प॒दा । व॒रा॒हः । अ॒भि । ए॒ति॒ । रेभ॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र काव्यमुशनेव ब्रुवाणो देवो देवानां जनिमा विवक्ति । महिव्रत: शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । काव्यम् । उशनाऽइव । ब्रुवाणः । देवः । देवानाम् । जनिम । विवक्ति । महिऽव्रतः । शुचिऽबन्धुः । पावकः । पदा । वराहः । अभि । एति । रेभन् ॥ ९.९७.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 7
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवानां) विदुषां मध्ये (देवः) यो मुख्यविद्वान् स (उशना, इव, काव्यं, ब्रुवाणः) कान्तिशीलविद्वानिव सन्दर्भरचनां कुर्वन् (जनिम, विवक्ति) अनेकजन्मवृत्तं वर्णयति (महिव्रतः) महाव्रतशीलः (शुचिबन्धुः) पवित्रताप्रियः (पावकः) सर्वेषां पावयिता (वराहः) सुतेजस्वी विद्वान् (रेभन्) साधूपदिशन् (पदा, अभि, एति) सन्मार्गेणागत्योपदिशति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवानाम्) विद्वानों के मध्य में (देवः) जो मुख्य विद्वान् है, वह (उशनेव काव्यं, ब्रुवाणः) कान्तिशील विद्वान् के समान सन्दर्भ रचना को करनेवाला विद्वान् (जनिम विवक्ति) अनेक जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन करता है। (महिव्रतः) बड़े व्रत को धारण करनेवाला (शुचिबन्धुः) पवित्रता का बन्धु (पावकः) सबको पवित्र करनेवाला है (वराहः) “वरं च तदहश्चेति वराहः, वराहो विद्यतेऽस्य स वराहः” जिसका श्रेष्ठ तेज हो, उसका नाम यहाँ वराह है। उक्त प्रकार का विद्वान् (रेभन्) सुन्दर उपदेश करता हुआ (पदाऽभ्येति) सन्मार्ग द्वारा आकर उपदेश करता है ॥७॥
भावार्थ
जो उत्तम विद्वान् हैं, वे अपनी रचना द्वारा पुनर्जन्मादि सिद्धान्तों का वर्णन करते हैं। वराह शब्द यहाँ सर्वोपरि तेजस्वी विद्वान् के लिये आया है। सायणाचार्य्य कहते हैं कि पाँव से भूमि को खोदता हुआ वराह जिस प्रकार शब्द करता है, इसी प्रकार सोम भी शब्द करता हुआ आता है। कई एक नवीन लोग इसको वराहावतार में भी लगाते हैं, अस्तु। वराहावतार वा सोम के पक्ष में काव्य का बनाना और उपदेश करना कदापि संगत नहीं हो सकता, इसलिये वराह के अर्थ यहाँ विद्वान् के ही हैं ॥७॥
विषय
विद्वान् उपदेष्टा के कर्तव्य।
भावार्थ
(देवः) ज्ञान, ऐश्वर्य का दान करने वाला, ज्ञान का प्रकाशक, तेजस्वी पुरुष (उशनाः इव) तेजस्वी, सूर्य के तुल्य स्वतः इच्छावान् हो कर (काव्यम् प्रब्रुवाणः) विद्वान् कवि क्रान्तदर्शी जनों तथा परम कवि परमेश्वर प्रोक्त वेदज्ञान का प्रवचन करता हुआ (देवानां जनिम विवक्ति) विद्वान् जनों या ज्ञानाभिलाषी जनों के बीच यथार्थ तत्व ज्ञान का प्रवचन करे। वह (महिव्रतः) बड़ा व्रतनिष्ठ, (शुचि-बन्धुः) शुद्ध पवित्र, नियम-बन्धनादि से युक्त एवं शुचि या तेज से अन्यों को सत् मर्यादाओं में बांधने वाला और (पावकः) परमपावन गुरु, (वराहः) उत्तम वचनों का उपदेष्टा बन कर (रेभन्) उत्तम उपदेश करता हुआ (पदा अभि एति) नाना उत्तम पदों को प्राप्त हो, वह ज्ञान सहित हमें प्राप्त हो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः
पदार्थ
(उशनाः इव) = हमारे हित की कामना करता हुआ-सा यह सोम (काव्यम्) = उत्कृष्ट ज्ञान को (प्र ब्रुवाणः) = हमारे जीवन में करता हुआ होता है। सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि तीव्र होकर हमारे उत्कृष्ट ज्ञान का कारण बनती है। (देवः) = यह प्रकाशमय सोम (देवानां जनिमा) = दिव्यगुणों के जन्मों को, दिव्यगुणों के प्रादुर्भाव को (विवक्ति) = हमारे जीवन में कहता है, अर्थात् सुरक्षित हुआ हुआ यह दिव्यगुणों के विकास का कारण बनता है। (महिव्रतः) = यह महनीय व्रतों वाला होता है। अपने रक्षक को उत्कृष्ट पुण्य कार्यों का करनेवाला बनाता है। (शुचिबन्धुः) = शुचिता व पवित्रता को हमारे साथ जोड़नेवाला होता है। (पावकः) = पवित्र करनेवाला तो यह है ही । (पदा) = अपनी गति से यह सोम (वराहः) = [वरं वरं आहन्ति, हन्- गतौ] सब उत्कृष्ट वस्तुओं को प्राप्त कराता है। यह सोम (रेभन्) = प्रभु का स्तवन करता हुआ (अभ्येति) = शरीर में चारों ओर गतिवाला होता है । रुधिर में व्याप्त हुआ हुआ यह सोम शरीरस्थ रोगकृमियों व वासनाओं को विनष्ट कर देता है ।
भावार्थ
भावार्थ- यह सोम रक्षित होने पर ज्ञान व दिव्यता को प्राप्त कराता है। महनीय व्रतों वाला, पवित्रता को हमारे साथ जोड़नेवाला है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
The brilliant poet, singing like an inspired fiery power divine, reveals the origin of nature’s divinities and the rise of human brilliancies. Great is his commitment, inviolable his discipline, bonded is he with purity as a brother, having chosen light of the sun and shower of clouds for his element, and he goes forward proclaiming the message of his vision by the paths of piety.
मराठी (1)
भावार्थ
जे उत्तम विद्वान आहेत ते आपल्या रचनेद्वारे पुनर्जन्म इत्यादी सिद्धांताचे वर्णन करतात. वराह शब्द येथे सर्वश्रेष्ठ तेजस्वी विद्वानासाठी आलेला आहे. सायणाचार्य्य पायांनी भूमी खोदत येतो असे म्हणतात. कित्येक नवीन लोक याला वराहावतारही मानतात; परंतु वराहवतार किंवा सोमच्या बाजूने काव्य बनविणे व उपदेश करणे कधीही एकत्रित होऊ शकत नाही. त्यासाठी वराहचा अर्थ येथे विद्वानच आहे.
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