ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 17
ऋषिः - व्याघ्रपाद्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वृ॒ष्टिं नो॑ अर्ष दि॒व्यां जि॑ग॒त्नुमिळा॑वतीं शं॒गयीं॑ जी॒रदा॑नुम् । स्तुके॑व वी॒ता ध॑न्वा विचि॒न्वन्बन्धूँ॑रि॒माँ अव॑राँ इन्दो वा॒यून् ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒ष्टिम् । नः॒ । अ॒र्ष॒ । दि॒व्याम् । जि॒ग॒त्नुम् । इळा॑ऽवतीम् । श॒म्ऽगयी॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् । स्तुका॑ऽइव । वी॒ता । ध॒न्व॒ । वि॒ऽचि॒न्वन् । बन्धू॑न् । इ॒मान् । अव॑रान् । इ॒न्दो॒ इति॑ । वा॒यून् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृष्टिं नो अर्ष दिव्यां जिगत्नुमिळावतीं शंगयीं जीरदानुम् । स्तुकेव वीता धन्वा विचिन्वन्बन्धूँरिमाँ अवराँ इन्दो वायून् ॥
स्वर रहित पद पाठवृष्टिम् । नः । अर्ष । दिव्याम् । जिगत्नुम् । इळाऽवतीम् । शम्ऽगयीम् । जीरऽदानुम् । स्तुकाऽइव । वीता । धन्व । विऽचिन्वन् । बन्धून् । इमान् । अवरान् । इन्दो इति । वायून् ॥ ९.९७.१७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 17
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे परमात्मन् ! (नः) अस्मभ्यं (दिव्यां, वृष्टिं) दिव्यवर्षं (अर्ष) प्रयच्छतु या वृष्टिः (जिगत्नुं) सर्वत्र व्याप्ता (इळावतीं) अन्नप्रदा (शंगयीं) सुखप्रदा (जीरदानुं) ऐश्वर्यप्रदा च स्यात्। भवांश्च (वीता, स्तुका इव) कान्तसन्ततीरिव (विचिन्वन्) उत्पादयन् (इमान्, बन्धून्) इमान्बन्धुगणान् (अवरान्) देशदेशान्तरस्थान् (वायून्) वायुमिव गतिशीलान् (धन्व) आगत्य प्राप्नोतु ॥१७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (नः) हमारे लिये आप (दिव्याम्) दिव्य (वृष्टिम्) वृष्टि (अर्ष) दें। जो वृष्टि (जिगत्नुं) सर्वत्र व्याप्त हो (इळावतीम्) अन्नवाली हो (शंगयीम्) सुखप्रद हो (जीरदानुम्) शीघ्र ऐश्वर्य्य को देनेवाली हो और तुम (वीता, स्तुका, इव) सुन्दर सन्तानों के समान (विचिन्वन्) उत्पन्न करते हुए (इमान्, बन्धून्) इस बन्धुगण को (अवरान्) जो देश-देशान्तरों में स्थिर है और (वायून्) वायु के समान गतिशील है, उसको (धन्व) आकर प्राप्त हो ॥१७॥
भावार्थ
यद्यपि परमात्मा स्व-स्व कर्मानुकूल ऊँच-नीच गति प्रदान करता है, तथापि वह सन्तानों के समान जीवमात्र की भलाई चाहता है, इसलिये कर्मों द्वारा सुधार करके सबको शुभ मार्ग में प्रेरित करता है ॥१७॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्दो) इस जीव के प्रति प्रेमरस द्रवित करने हारे ! तू (नः) हमारे लिये, (जिगत्नुम्) प्राप्त करने योग्य, हमारे प्रति आने वाली, (इडावतीम्) उत्तम अन्नसम्पदा से युक्त, (शं-गयीं) शान्तिदायक, प्राणों वा गृह तक में शान्तिदायक, शान्ति के गृह रूप (जीरदानुम्) शीघ्र वा जीवन प्रदान करने वाली, (दिव्यां वृष्टिं अर्ष) दिव्य वृष्टि प्रदान कर। तू (इमान् अवरान् बन्धून्) इन अपने से अन्य, पद, मान, शक्ति वाले सम्बन्ध से बद्ध, (वायून्) वायुवत् बलवान् वा ज्ञानशक्ति के इच्छुक जनों को (स्तुका इव वीता) पुत्रों के समान प्रिय एवं रक्षा योग्य जानकर (विचिन्वन्) उनको संग्रह करता हुआ (धन्व) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
दिव्यां वृष्टिं अर्ष
पदार्थ
सुरक्षित सोम अन्तत: धर्ममेघ समाधि में हमें पहुँचने के योग्य बनाकर दिव्य आनन्द की वर्षा को प्राप्त कराता है। इसी बात को कहते हैं कि हे सोम ! तू (नः) = हमारे लिये (दिव्यां वृष्टिम्) = इस दिव्य - अलौकिक वर्षा को (अर्षः) = प्राप्त करा। जो वृष्टि (जिगत्नुं) = हमें गतिशील बनाती है, यह ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति अधिक क्रियाशील हो जाता है 'क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ' । (इडावतीम्) = यह वेदवाणी वाली है, इस दिव्य वृष्टि का अनुभव करनेवाला ज्ञान की ओर झुकता है । (शंगयीम्) = यह शान्ति का घर है, हमारे जीवन को शान्त बनाती है। (जीरदानुम्) = शीघ्रता से सब वरणीय वस्तुओं का हमारे लिये दान करती है या हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराती है। हे (इन्दो) = सोम ! (इमान्) = इन (अवरान् बन्धून्) = अवर देश में स्थित बन्धुभूत (वायून्) = प्राणों को (विचिन्वन्) = विशेषरूप से संचित करता हुआ (धन्व:) = शरीर में गतिवाला हो। उन प्राणों का संचय करता हुआ तू गतिवाला हो जो (स्तुकः इव) = कुञ्चित केशसमूह के समान (वीता) = सुन्दर है। प्राण उनचास भागों में बँटे हुए हैं, सब के सब बड़े सुन्दर हैं। ये तभी तक सुन्दर है जब तक कि मिलकर इनका कार्य होता रहे। अकेले प्राण का सौन्दर्य उसी प्रकार नहीं रहता जैसे कि एक बाल का। इन प्राणों की शक्ति भी सोमरक्षण से वृद्धि को प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली दिव्य वृष्टि को प्राप्त कराता है, प्राणों का विशेष रूप से संचय करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, refulgent giver, bring us celestial rains, dynamic and universal, productive and illuminative, peace giving and abundantly generous. Selecting and favouring like loved children these friendly and brotherly people here and elsewhere, vibrant as winds, pray inspire and energise them to live a full joyous life.
मराठी (1)
भावार्थ
जरी परमेश्वर प्रत्येकाच्या कर्मानुसार उच्च-नीच गती प्रदान करतो तरी तो संतानांप्रमाणे प्रत्येक जीवाचे भले इच्छितो. त्यासाठी कर्माद्वारे सुधार करून सर्वांना शुभ मार्गात प्रेरित करतो. ॥१७॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal