ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 29
ऋषिः - वसुक्रो वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
श॒तं धारा॑ दे॒वजा॑ता असृग्रन्त्स॒हस्र॑मेनाः क॒वयो॑ मृजन्ति । इन्दो॑ स॒नित्रं॑ दि॒व आ प॑वस्व पुरए॒तासि॑ मह॒तो धन॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठश॒तम् । धाराः॑ । दे॒वऽजा॑ताः । अ॒सृ॒ग्र॒न् । स॒हस्र॑म् । ए॒नाः॒ । क॒वयः॑ । मृ॒ज॒न्ति॒ । इन्दो॒ इति॑ । स॒नित्र॑म् । दि॒वः । आ । प॒व॒स्व॒ । पु॒रः॒ऽए॒ता । अ॒सि॒ । म॒ह॒तः । धन॑स्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
शतं धारा देवजाता असृग्रन्त्सहस्रमेनाः कवयो मृजन्ति । इन्दो सनित्रं दिव आ पवस्व पुरएतासि महतो धनस्य ॥
स्वर रहित पद पाठशतम् । धाराः । देवऽजाताः । असृग्रन् । सहस्रम् । एनाः । कवयः । मृजन्ति । इन्दो इति । सनित्रम् । दिवः । आ । पवस्व । पुरःऽएता । असि । महतः । धनस्य ॥ ९.९७.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 29
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूपपरमात्मन् ! भवान् (सनित्रं) उपासनासाधनैश्वर्यं (दिवः) द्युलोकाद्दत्त्वा (आ पवस्व) मां पुनातु, यतः (पुरः) प्राचीनकालादेव भवान् (महतः, धनस्य, एता, असि) महतो धनस्य दातास्ति (शतं धाराः) अनन्तब्रह्माण्डानां (असृग्रन्) उत्पाद्य धारकः (सहस्रं) सहस्रधा (एनाः) विभूतयः (मृजन्ति) अलं कुर्वन्ति भवन्तं (देवजाताः) दिव्यशक्तिसम्पन्नाः (कवयः) क्रान्तदर्शिनो विद्वांसः भवन्तं शुद्धस्वरूपेण वर्णयन्ति ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (सनित्रम्) उपासना के साधनरूप ऐश्वर्य्य को (दिवः) द्युलोक से देकर (आपवस्व) हमको पवित्र करें, क्योंकि (पुरः) प्राचीनकाल से ही आप (महतो धनस्य) बड़े धनों के (एता) दाता (असि) हो। आप कैसे हैं, (शतं धाराः) अनन्त ब्रह्माण्डों के (असृग्रन्) धारण करनेवाले हैं और (सहस्रम्) सहस्रों प्रकार की (एनाः) विभूतियें (मृजन्ति) आपको अलंकृत करती हैं, (देवजाताः) दिव्यशक्तिसम्पन्न (कवयः) क्रान्तदर्शी विद्वान् तुमको शुद्ध स्वरूप से वर्णन करते हैं ॥२९॥
भावार्थ
परमात्मा के ऐश्वर्य्य को सब लोक-लोकान्तर वर्णन करते हैं। जो कुछ यह ब्रह्माण्ड है, वह परमात्मा की विभूति है अर्थात् यह सब चराचर जगत् परमात्मा के एकदेश में स्थिर है और परमात्मा इसको अपने में अभिव्याप्त करके सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है ॥२९॥
विषय
अग्रणी विद्वान् के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(देव-जाताः) मेघ से उत्पन्न जलधाराओं के तुल्य ‘देव’ प्रभु परमेश्वर से उत्पन्न (शतम् सहस्रम्-धाराः) सौ-हजार (१००,००० = एक लक्ष), अनेक वाणी, (असृग्रन्) उत्पन्न होती हैं। (एनाः कवयः) उनको अनेक तत्वदर्शी विद्वान् गण (मृजन्ति) सुशोभित करते हैं, नाना प्रकार से उनको परिष्कृत कर रोचक, विस्तृत आदि करके कहते हैं। हे (इन्दो) ऐश्वर्यवन्! हे तेजस्विन् ! तू (दिवः) ज्ञानप्रकाश का (सनित्रं) परम श्रेष्ठ दान (आ पवस्व) प्रदान कर। तू (महतः) महान् सर्वश्रेष्ठ (धनस्य) देने योग्य धन का (पुरः-एता असि) अग्रगन्ता, नेता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
महान् धन का अग्रदूत
पदार्थ
हे सोम ! (देवजाताः) = दिव्यगुणों के विकास के लिये उत्पन्न हुई हुई (शतं धारा:) = सैकड़ों तेरी धारायें (असृग्रन्) = उत्पन्न की जाती हैं। (कवयः) = क्रान्तदर्शी ज्ञानी पुरुष (सहस्रः) = हजारों प्रकार से (एनाः) = इन धाराओं को (मृजन्ति) = शुद्ध करते हैं। इनके शोधन से ही वस्तुतः वे कवि बन पाते हैं । हे (इन्दो) = सोम ! तू (दिवः सनित्रम्) = ज्ञान के धन को (आपवस्व) = सर्वथा प्राप्त करा । तू ही इस (महतः धनस्य) = महान् धन का (पुरः एता असि) = अग्रगन्ता है। तेरे रक्षण व शरीर में व्यापन के पश्चात् ही यह ज्ञान का महान् धन प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष सब प्रकार से सोम के शोधन के लिये, इसे वासनाओं के उबाल से मलिन न होने देने के लिये यत्नशील होते हैं । यह सुरक्षित सोम ही उन्हें ज्ञान के महान् धन को प्राप्त कराता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Hundred streams of soma joy born of divinity flow for the divinities of nature and nobilities of humanity. A thousand ways poets and sages sing of them, adore and exalt them. O self-refulgent lord of bliss and generosity, let the holiest wealth and virtue flow from the light of divinity. You alone are the eternal, original and prime giver of the great wealth, honour and excellence of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या ऐश्वर्याचे सर्व लोक-लोकांतर वर्णन करतात. हे ब्रह्मांड परमेश्वराच्या विभूती आहेत. अर्थात, हे चराचर जग परमेश्वराच्या एकदेशात स्थिर आहे व परमेश्वर त्याला आपल्यात अभिव्याप्त करून सर्वत्र परिपूर्ण होत आहे. ॥२९॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal