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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 25
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
श॑र॒व्या॒ मुखे॑ऽपिन॒ह्यमा॑न॒ ऋति॑र्ह॒न्यमा॑ना ॥
स्वर सहित पद पाठश॒र॒व्या᳡ । मुखे॑ । अ॒पि॒ऽन॒ह्यमा॑ने । ऋति॑: । ह॒न्यमा॑ना: ॥७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
शरव्या मुखेऽपिनह्यमान ऋतिर्हन्यमाना ॥
स्वर रहित पद पाठशरव्या । मुखे । अपिऽनह्यमाने । ऋति: । हन्यमाना: ॥७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(मुखे, अपिनह्यमाने) मुख के बान्धे जाते हुए (शरव्या) गौ शरों के समान होती है, (हन्यमाना) वध की जाती हुई (ऋतिः) कष्टरूपा है।
टिप्पणी -
[गौ चाहे रुग्ण भी हो तब भी इसे कष्ट न पहुंचाना चाहिये, न इस का वध करना चाहिये- यह मन्त्र में प्रतिपादित किया है। वध के लिये गौ के मुख को बान्ध रखना, ताकि वह आक्रन्दन न कर सके, और मुख बान्धने के पश्चात् हनन करना, इन का निषेध किया है। इन दो कृत्यों के करने वाले को भी, गोरक्षक लोग, शरों द्वारा विनष्ट करते, और विविध प्रकार के कष्ट देते हैं]।