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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 31
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - याजुषी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वि॒षं प्र॒यस्य॑न्ती त॒क्मा प्रय॑स्ता ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒षम् । प्र॒ऽयस्य॑न्ती । त॒क्मा । प्रऽय॑स्ता ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
विषं प्रयस्यन्ती तक्मा प्रयस्ता ॥
स्वर रहित पद पाठविषम् । प्रऽयस्यन्ती । तक्मा । प्रऽयस्ता ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(प्रयस्यन्ती) पकाने के लिये प्रयास की जाती हुई गौ (विषम्) विषरुप है, (प्रयस्ता१) और प्रयास की गई (तक्मा२,) कष्टप्रद ज्वर रूप है।
टिप्पणी -
[प्रयस्यन्ती = प्र + यस्] (प्रयत्ने) + शतृ। मन्त्र ३२ में "पच्यमाना और पक्वा" पदों की दृष्टि से पकाने से पूर्व-किये जाने वाले प्रयास, अर्थात् मांस को देगची में डालना और आग के जलाने आदि का वर्णन मन्त्र में अभिप्रेत है। मन्त्र में दर्शाया है कि गोमांस खाना विषरूप है, तथा कष्ट प्रद ज्वर का उत्पादक३ है] [१. प्रयस्त = Seasoned, dressed with condiments (आप्टे), अर्थात् मसाले लगाना। २. तकिकृच्छ्र जीवने। अभिप्राय है "कष्टप्रद ज्वर", (अथर्व० ५॥२२॥१४)। ३. बौद्ध धार्मिक ग्रन्थ "सूतनिपात" के एक प्रकरण के सन्दर्भ का अंग्रेजी में अनुवाद निम्नलिखित हैं— Like unto a mother, a father, a brother and other relatives, the cows are our best friends, There were formerly three diseases--desire, hunger and decay, but from the slaying of cattle there came ninety-eight"। अर्थात् माता-पिता, भाई तथा अन्य सम्बन्धियों की तरह गौएं भी हमारे श्रेष्ठ सखा है। पूर्व काल में तीन ही रोग थे- इच्छा, भूख और क्रमिक ह्रास। परन्तु पशुघात के कारण ९८ रोग पैदा हो गए। इसी प्रकार चरक संहिता के चिकित्सा स्थान के १० वें अध्याय में निम्नलिक्षित सन्दर्भ है। "गवां गौरवादौष्ण्याद सात्म्याद् शस्तोपयोगाच्चोपहताग्नीनामुपहतमनसामतीसारः पूर्वमुत्पन्नः"। अर्थात् गौ के मांस के भारी होने से, उष्ण और अस्वाभाविक होने से और उस के प्रयोग के अप्रशस्त होने से लोगों की जाठराग्नि और बुद्धिशक्ति मन्द हो गई, और अतिसार रोग उत्पन्न हो गया"।