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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - साम्न्युष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अप॑ क्रामति सू॒नृता॑ वी॒र्यं पुण्या॑ ल॒क्ष्मीः ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । क्रा॒म॒ति॒ । सू॒नृता॑ । वी॒र्य᳡म्। पुण्या॑ । ल॒क्ष्मी: ॥५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अप क्रामति सूनृता वीर्यं पुण्या लक्ष्मीः ॥
स्वर रहित पद पाठअप । क्रामति । सूनृता । वीर्यम्। पुण्या । लक्ष्मी: ॥५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(ताम् ब्रह्मगवीम्) ब्रह्म की उस वाणी का (आददानस्य) अपहरण करने वाले, [इस प्रकार] (ब्राह्मणम्) ब्रह्मवेत्ता तथा वेदवेत्ता व्यक्ति को (जिनतः) जीवन की हानि पहुंचाने वाले (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय का (सूनृता) उषः काल, (वीर्यम्) वीरता, और (पुण्या लक्ष्मीः) पुण्यकर्मों द्वारा उपार्जित राज्यलक्ष्मी (अप क्रामति) अपक्रान्त हो जाती है, उस से छीन ली जाती है।
टिप्पणी -
[आवदानस्य =अपहर्तुः। यथाः – “आदित्यः कस्मात् आदत्ते भासं ज्योतिषाम्" (निरु० २।४।१३)। प्रातरुद्यन्नादित्यः ज्योतिषां नक्षत्राणां भासं दीप्तिमादत्ते, अपहरति। क्षत्रियस्य-प्रजाओं का क्षतों से त्राण करने वाले राजा का। सुनृता=उषोनाम (निरु० १।८)। क्षत्रिय के राज्य का प्रारम्भ काल। यदि राजा अपने राज्यकाल के प्रारम्भ काल में ब्राह्मण की वेदवाणी पर प्रतिबन्ध लगा देता है तो प्रजाविद्रोह के कारण उस के राज्य के उषः काल में ही उससे राज्यलक्ष्मी अपक्रान्त हो जाती है। वेदवाणी वेदवेत्ता के लिये जीवनीय साधन होती है। अतः वेदवाणी का अपहरण वेदवेत्ता के जीवन को हानि पहुंचाना है]।