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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 53
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
वै॑श्वदे॒वी ह्युच्यसे॑ कृ॒त्या कूल्ब॑ज॒मावृ॑ता ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्व॒ऽदे॒वी । हि ।उ॒च्यसे॑ । कृ॒त्या। कूल्ब॑जम् । आऽवृ॑ता॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वदेवी ह्युच्यसे कृत्या कूल्बजमावृता ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वऽदेवी । हि ।उच्यसे । कृत्या। कूल्बजम् । आऽवृता॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 53
भाषार्थ -
[हे गोजाति] (वैश्वदेवी हि) सब देवों की तू प्रतिनिधिरूपा (उच्यसे) कही जाती है। (आवृता) रोकी गई तू (कूल्बजम्) नदी के कूलों से आवृत, वेग वाले जल प्रवाह के सदृश है।
टिप्पणी -
[चार प्रकार की ओषधियों में "दैवी" ओषधियां भी हैं (मन्त्र ५२), यथा जल, वायु, मृद्, सौर रश्मियां आदि। इस द्वारा गोजाति को ओषधि रूपा कह कर मनुष्योपकारिणी दर्शाया है। तथा "कूल्बजम्" कह कर इस की गति पर रुकावट डालने वालों के लिये वेगवती नदी के जल प्रवाह के सदृश विनाश करने वाली भी कहा है। वैश्वदेवी="वीरुधो वैश्वदेवीरुग्राः पुरुषजीवनीः" (अथर्व० ८।७।४), अर्थात् वैश्वदेवी लताएँ रोगनाश में उग्ररूप तथा पुरुषों को जीवन देने वाली है।]