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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 44
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - पिपीलिकमध्यानुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    वि॑वा॒हां ज्ञा॒तीन्त्सर्वा॒नपि॑ क्षापयति ब्रह्मग॒वी ब्र॑ह्म॒ज्यस्य॑ क्ष॒त्रिये॒णापु॑नर्दीयमाना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽवा॒हान् । ज्ञा॒तीन् । सर्वा॑न् । अपि॑ । क्षा॒प॒य॒ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । क्ष॒त्रिये॑ण । अपु॑न:ऽदीयमाना ॥९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विवाहां ज्ञातीन्त्सर्वानपि क्षापयति ब्रह्मगवी ब्रह्मज्यस्य क्षत्रियेणापुनर्दीयमाना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽवाहान् । ज्ञातीन् । सर्वान् । अपि । क्षापयति । ब्रह्मऽगवी । ब्रह्मऽज्यस्य । क्षत्रियेण । अपुन:ऽदीयमाना ॥९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 44

    भाषार्थ -
    (क्षत्रियेण) क्षत्रिय राजा द्वारा (अपुनर्दीयमाना) स्वरक्षा का वचन पुनः न दी जाती हुई (ब्रह्मगवी) गौ अर्थात् गो जाति (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुंचाने वाले के (विवाहान्) विवाहों और (सर्वान्) सब (ज्ञातीन् अपि) ज्ञाति बन्धुओं को भी (क्षापयति) निज रक्षकों द्वारा नष्ट करा देती है।

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