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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 60
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अघ्न्ये॒ प्र शिरो॑ जहि ब्रह्म॒ज्यस्य॑ कृ॒ताग॑सो देवपी॒योर॑रा॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअघ्न्ये॑ । प्र । शिर॑: । ज॒हि॒। ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । कृ॒तऽआ॑गस: । दे॒व॒ऽपी॒यो: । अ॒रा॒धस॑: ॥१०.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
अघ्न्ये प्र शिरो जहि ब्रह्मज्यस्य कृतागसो देवपीयोरराधसः ॥
स्वर रहित पद पाठअघ्न्ये । प्र । शिर: । जहि। ब्रह्मऽज्यस्य । कृतऽआगस: । देवऽपीयो: । अराधस: ॥१०.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 60
भाषार्थ -
(अघ्न्ये) हे अवध्य गोजाति ! (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुचाने वाले, (कृतागसः) पापी, (देवपीयोः) देवहिंसक, (अराधसः) आराधना हीन के (शिरः) सिर को (प्रजहि) काट दे, या उस के सिर पर प्रहार कर।