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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 56
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    आ द॑त्से जिन॒तां वर्च॑ इ॒ष्टं पू॒र्तं चा॒शिषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । द॒त्से॒ । जि॒न॒ताम् । वर्च॑: । इ॒ष्टम् । पू॒र्तम् । च॒ । आ॒ऽशिष॑: ॥१०.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ दत्से जिनतां वर्च इष्टं पूर्तं चाशिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । दत्से । जिनताम् । वर्च: । इष्टम् । पूर्तम् । च । आऽशिष: ॥१०.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 56

    भाषार्थ -
    [हे गो-जाति !] (आ दत्से) तू छीन लेती है (जिनताम्) तेरे जीवन को हानि पहुंचाने वालों के (वर्चः) तेज को, (इष्टम्) उन के यज्ञ के फलों को, (पूर्तम्) सामाजिक परोपकारों के यश को, (आशिषः) तथा इच्छाओं को।

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