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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 38
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्रतिष्ठा गायत्री
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॑शि॒ता लो॒काच्छि॑नत्ति ब्रह्मग॒वी ब्र॑ह्म॒ज्यम॒स्माच्चा॒मुष्मा॑च्च ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒शि॒ता । लो॒कात् । छि॒न॒त्ति॒ । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । अ॒स्मात् । च॒ । अ॒मुष्मा॑त् । च॒ ॥८.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अशिता लोकाच्छिनत्ति ब्रह्मगवी ब्रह्मज्यमस्माच्चामुष्माच्च ॥
स्वर रहित पद पाठअशिता । लोकात् । छिनत्ति । ब्रह्मऽगवी । ब्रह्मऽज्यम् । अस्मात् । च । अमुष्मात् । च ॥८.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 38
भाषार्थ -
(अशिता) खाई गई (ब्रह्मगवी) ब्रह्म अर्थात् परमेश्वर की गौ (ब्रह्मज्यम्) गोरक्षक ब्राह्मण को हानि पहुंचाने वाले को, इस लोक तथा उस लोक से विच्छिन्न कर देती हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दो ब्रह्मपद द्वयर्थक हैं। ब्रह्मगवी द्वारा तो यह सूचित किया है कि गोजाति का स्वामी परमेश्वर हैं। परमेश्वर की सम्पत्ति के विनाश करने का अधिकार किसी मनुष्य को नहीं। दूसरे ब्रह्म पद द्वारा ब्राह्मण को सूचित किया है जो कि गोरक्षान्दोलन का नेता है। ऐसे नेता के जीवन को हानि पहुंचाने पर गोरक्षा का आन्दोलन न हो सकेगा और गोवंश के विनाश से जनता का इह लोक दुःखप्रद हो जायगा, तथा गोघृत के अभाव में यज्ञों के न हो सकने के कारण परलोक की प्राप्ति भी न हो सकेगी। यथा "स्वर्गकामो यजेत"]