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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 55
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्योष्णिक्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
क्षु॒रप॑विर्मृ॒त्युर्भू॒त्वा वि धा॑व॒ त्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठक्षु॒रऽप॑वि: । मृ॒त्यु: । भू॒त्वा । वि । धा॒व॒ । त्वम् ॥१०.९॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षुरपविर्मृत्युर्भूत्वा वि धाव त्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठक्षुरऽपवि: । मृत्यु: । भूत्वा । वि । धाव । त्वम् ॥१०.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 55
भाषार्थ -
(क्षुरपविः) छुरे के समान तीक्ष्ण वज्ररूप हुई, तथा (मृत्युः भूत्वा) मृत्युरूप होकर (त्वम्) हे गोजाति ! तू (वि धाव) विविध और दौड़।
टिप्पणी -
[गो जाति के विनाशक शत्रु जो कि गोरक्षकों के साथ युद्ध के लिये एकत्रित हुए हैं (मन्त्र ५१) उन के लिये हे गोजाति ! तू क्षुरपवि तथा मृत्युरूप हो कर, विविध पार्श्वों में स्थित जो शत्रु है उन के प्रति दौड़। [यह निर्देश गोरक्षकों के लिये है कि वे दौड़-दौड़ कर शत्रुओं का सब ओर से विनाश करें]।