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  • अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 65
    सूक्त - अथर्वाचार्यः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - गायत्री सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    ए॒वा त्वं दे॑व्यघ्न्ये ब्रह्म॒ज्यस्य॑ कृ॒ताग॑सो देवपी॒योर॑रा॒धसः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । त्वम् । दे॒वि॒ । अ॒घ्न्ये॒ । ब्र॒ह्म॒ऽज्यस्य॑ । कृ॒तऽआ॑गस: । दे॒व॒ऽपी॒यो: । अ॒रा॒धस॑: ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा त्वं देव्यघ्न्ये ब्रह्मज्यस्य कृतागसो देवपीयोरराधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव । त्वम् । देवि । अघ्न्ये । ब्रह्मऽज्यस्य । कृतऽआगस: । देवऽपीयो: । अराधस: ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 65

    भाषार्थ -
    (एवा) इस प्रकार (अघ्न्ये देवी) हे अवध्य गौ देवी ! (त्वम्) तू (ब्रह्मज्यस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण के जीवन को हानि पहुंचाने वाले, (कृतागसः) पापी, (देवपीयोः) देवहिंसक, (अराधसः) आराधनाहीन व्यक्ति के (६५),

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