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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 57
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - प्राजापत्यानुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
आ॒दाय॑ जी॒तं जी॒ताय॑ लो॒केमुष्मि॒न्प्र य॑च्छसि ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒ऽदाय॑ । जी॒तम् । जी॒ताय॑ । लो॒के । अ॒मुष्मि॑न् । प्र । य॒च्छ॒सि॒ ॥१०.११॥
स्वर रहित मन्त्र
आदाय जीतं जीताय लोकेमुष्मिन्प्र यच्छसि ॥
स्वर रहित पद पाठआऽदाय । जीतम् । जीताय । लोके । अमुष्मिन् । प्र । यच्छसि ॥१०.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 57
भाषार्थ -
[हे गोजाति !] (जीतम्) मृत गोघातक को (आदाय) पकड़ कर (जीताय) मृत गोरक्षक के प्रति, (अमुष्मिन् लोके) उस परलोक में (प्रयच्छसि) तू सौंप देती है, सुपुर्द कर देती है [बदला लेने के लिये]। यद्यपि की गई मृत्यु का दुष्फल तो परमेश्वर ने देना है, परन्तु उस दुष्फल का निमित्त गौ हो जाती है]।