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अथर्ववेद - काण्ड 12/ सूक्त 5/ मन्त्र 41
सूक्त - अथर्वाचार्यः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - भुरिक्साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
अ॒ग्निः क्र॒व्याद्भू॒त्वा ब्र॑ह्मग॒वी ब्र॑ह्म॒ज्यं प्र॒विश्या॑त्ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नि: । क्र॒व्य॒ऽअत् । भू॒त्वा । ब्र॒ह्म॒ऽग॒वी । ब्र॒ह्म॒ऽज्यम् । प्र॒ऽविश्य॑ । अ॒त्ति॒ ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निः क्रव्याद्भूत्वा ब्रह्मगवी ब्रह्मज्यं प्रविश्यात्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नि: । क्रव्यऽअत् । भूत्वा । ब्रह्मऽगवी । ब्रह्मऽज्यम् । प्रऽविश्य । अत्ति ॥९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 5; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(ब्रह्मगवी) "ब्रह्म" अर्थात् परमेश्वर की "गवी" अर्थात् गोजाति, (क्रव्याद् अग्निः भूत्वा) श्मशान की शवाग्नि हो कर, (ब्रह्मज्यम्) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ के जीवन को हानि पहुंचाने वाले में (प्रविश्य) प्रविष्ट हो कर (अत्ति) उसे खा जाती है।
टिप्पणी -
[गोजाति परमेश्वर की सम्पत्ति या सन्तानरूप है, क्योंकि परमेश्वर ने ही गोजाति को उत्पन्न किया है। ब्रह्म अर्थात् ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ ब्राह्मण, उस गोजाति का रक्षक है। जो क्षत्रिय (राजा) गोरक्षक के जीवन को हानि पहुंचाता है, उसे गोरक्षक-नेता के अनुयायी अग्नि द्वारा दग्ध कर देते है,- यह अभिप्राय मन्त्र का प्रतीत होता है। गोरक्षा के समग्र प्रकरण में, नेता-ब्राह्मण और क्षत्रिय अर्थात् राजा में, परस्पर विवाद का वर्णन है। ब्रह्मज्यम्= ब्रह्म + ज्या (वयोहानौ)]।