अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
ओ चि॒त्सखा॑यंस॒ख्या व॑वृत्यां ति॒रः पु॒रु चि॑दर्ण॒वं ज॑ग॒न्वान्। पि॒तुर्नपा॑त॒मा द॑धीतवे॒धा अधि॒ क्षमि॑ प्रत॒रं दीध्या॑नः ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । चि॒त् । सखा॑यम् । स॒ख्या । व॒वृ॒त्या॒म् । ति॒र: । पु॒रु । चि॒त् । अ॒र्ण॒वम् । ज॒ग॒न्वान् । पि॒तु: । नपा॑तम् । आ । द॒धी॒त॒ । वे॒धा: । अधि॑ । क्षमि॑ । प्र॒ऽत॒रम् । दीध्या॑न: ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ चित्सखायंसख्या ववृत्यां तिरः पुरु चिदर्णवं जगन्वान्। पितुर्नपातमा दधीतवेधा अधि क्षमि प्रतरं दीध्यानः ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । चित् । सखायम् । सख्या । ववृत्याम् । तिर: । पुरु । चित् । अर्णवम् । जगन्वान् । पितु: । नपातम् । आ । दधीत । वेधा: । अधि । क्षमि । प्रऽतरम् । दीध्यान: ॥१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(सख्या) सखिभाव से (सखायम्) तुझ सखा की ओर (आ ववृत्याम्) मैं आऊं, तुझे प्राप्त होऊं - यह मेरी अभिलाषा है। तु ब्रह्मचर्यरूपी (पुरू अर्णवम् चित्) महान् तथा सद्गुणों से परिपूर्ण समुद्र को (तिरः) तैर (जगन्वान्) चुका है, पार कर चुका है। (वेधाः) इसलिये विधिविधान को तू जानता है। विधिविधान के ज्ञाता को चाहिये कि वह (क्षमि अधि) पृथिवी में अपने भविष्य का (प्रतरं दीध्यानः) पूर्णतया ध्यान कर, (पितुः) निज पिता के (नपातम्) पौत्र को उत्पन्न करने का लक्ष्य बना कर, (आ दधीत) विवाह-पूर्वक गर्भाधान करें१।
टिप्पणी -
[१८ वें काण्ड में पितरों का वर्णन है। पितरों की सत्ता गृहस्थ धर्म पर आश्रित है। इसलिये १८वें काण्ड के प्रारम्भ में विवाह की चर्चा हुई है। विवाह की चर्चा यमयमी के संवादरूप में की गई है। मन्त्रों में यम-यमी को जोड़िया भाई-बहिन के रूप में उपस्थित किया है। यम तो ब्रह्मचर्याश्रम में यम-नियमों का पालन कर स्नातक बन कर आया है। इसलिये वह विवाह आदि के विधिविधानों को जानता है। यमी है युवति, परन्तु विवाह के विधिविधानों से अनभिज्ञ है। वह यम के साथ विवाह चाहती है। इसलिये यम के प्रति विवाह का प्रस्ताव रख रही है। विवाह की सप्तपदी की विधि में "सखे सप्तपदी भव" द्वारा विवाह-बन्धन दृढ़ हो जाता है। इसे लक्ष्य में रखकर यमी कहती है यम से कि- मैं सखिभाव की विधि से तुझे अपना विवाहित सखा बनाना चाहती हूं। अनेक प्रकार की उक्तियों और प्रत्युक्तियों के प्रसङ्ग में यम, भाई-बहिन के पारस्परिक विवाह को तर्कसङ्गत, अवैज्ञानिक तथा शिष्टासंमत दर्शाता हुआ विवाह-सम्बन्ध का प्रत्याख्यान करता है। यम-यमी ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं हैं। अपितु संवाद के ये कल्पित पात्र हैं। जैसे कि उपन्यासों, कथा-कहानियों, और नाटकों में पात्र कल्पित कर लिये जाते हैं। वेदों में ऐसे संवाद प्ररोचनार्थ यत्र-तत्र मिलते हैं। यथा-उर्वशी और पुरुरवा का संवाद (ऋ० १०।९५); विश्वामित्र और नदियों का संवाद (ऋ० ३।३३); सरमा और पणियों का संवाद (ऋ० १०।१०८)। ऐसे संवादों को निरुक्तकार ने "आख्यान" तथा "आख्यायिकाएं" कहा है। ओ=आ+उ। “आ” का सम्बन्ध "ववृत्याम्" के साथ है। तिरः का अर्थ है - तैर कर सफलतापूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त कर "तॄ संतरणे"। महर्षि दयानन्द ने "ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका" के ब्रह्मचर्य - प्रकरण में "स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रम्" (अथर्व० ११।५।६) का अर्थ किया है- "स ब्रह्मचारी (पूर्वस्मात्) ब्रह्मचर्यानुष्ठानभूतात् समुद्रात् (उत्तरम्) गृहाश्रमसमुद्रं शीघ्रं प्राप्नोति"। इसलिये हमने मन्त्र १ में "अर्णवम्" पद का अर्थ "ब्रह्मचर्याश्रम" किया है, और यह अर्थ यहाँ उपयुक्त भी है। पुरू=महान्, तथा "पृ" (पूरणे)। नपात=नपात् का अर्थ है "पोता"। यमी "नपात्" और "पितुः" शब्दों का प्रयोग कर यम को "पितृ-ऋण" से मुक्त होने की ओर प्रेरित करती है। यह तभी सम्भव है जब कि यम विवाह करके पुत्र के निमित्त गर्भाधान करे। यमी साथ ही यह भी कहती हैं कि बिना पुत्र के बुढ़ापे तथा बिमारी में जीवन अन्धकारमय हो जाता है। अतः भविष्य का ध्यान करा वह यम को विवाह के लिये प्रेरित करती है ।] [१. यम-यमी के संवाद से पूर्व, एतत्सम्बन्धी भूमिका का पढ़ना आवश्यक प्रतीत होता है।]