अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 41
सर॑स्वतींदेव॒यन्तो॑ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा॑ने। सर॑स्वतीं सु॒कृतो॑ हवन्ते॒सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्यं॑ दात् ॥
स्वर सहित पद पाठसर॑स्वतीम् । दे॒व॒ऽयन्त॑: । ह॒व॒न्ते॒ । सर॑स्वतीम् । अ॒घ्व॒रे । ता॒यमा॑ने । सर॑स्वतीम् । सु॒ऽकृत॑: । ह॒व॒न्ते॒ । सर॑स्वती । दा॒शुषे॑ । वार्य॑म् । दा॒त् ॥१.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
सरस्वतींदेवयन्तो हवन्ते सरस्वतीमध्वरे तायमाने। सरस्वतीं सुकृतो हवन्तेसरस्वती दाशुषे वार्यं दात् ॥
स्वर रहित पद पाठसरस्वतीम् । देवऽयन्त: । हवन्ते । सरस्वतीम् । अघ्वरे । तायमाने । सरस्वतीम् । सुऽकृत: । हवन्ते । सरस्वती । दाशुषे । वार्यम् । दात् ॥१.४१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 41
भाषार्थ -
(देवयन्तः) परमेश्वर देव की कामनावाले (सरस्वतीम्) ज्ञान प्रदायिनी वेदवाणियों का (हवन्ते) उच्चारण वा जप करते हैं। (अध्वरे) अहिंसा-यज्ञों के (तायमाने) किये जाते (सरस्वतीम्) याज्ञिक लोग ज्ञानप्रदा वेदवाणी का उच्चारण करते हैं। (सुकृतः) सुकर्मों के करनेवाले (सरस्वतीम्) सुकर्मों के ज्ञान के लिये ज्ञानप्रदा वेदवाणी का (हवन्ते) उच्चारण-पूर्वक स्वाध्याय करते हैं। (सरस्वती) ज्ञानमयी वेदवाणी (दाशुषे) ब्रह्मदान करनेवाले के लिये, (वार्यम्) उसे अभिलषित फल (दात्) देती है।
टिप्पणी -
[सरस्वती = सरः ज्ञानम् (उणा० ४।१९० दयानन्द भाष्य) + वती। सरस्वती अर्थात् वेदवाणी के सम्बन्ध में निरुक्तकार यास्काचार्य लिखते हैं कि- "अर्थ वाचः पुष्पफलमाह। याज्ञदैवते पुष्पफले, देवताध्यात्मे वा (१।६।२०)। अर्थात् वेदवाणी के फल तीन हैं- यज्ञप्रक्रिया का ज्ञान, तथा अग्नि वायु सूर्य सोम आदि दिव्यतत्त्वों का ज्ञान, तथा अध्यात्मतत्त्वों का ज्ञान, अर्थात् शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, जीवात्मा, परमात्मा, जन्म-मरण, मोक्ष तथा कर्मव्यवस्था और परमेश्वर के स्वरूप आदि का ज्ञान। सरस्वती = वाक् (निघं० १।११); तथा (उणा० ४।१९०)।]