अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 50
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - भुरिक् त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
य॒मो नो॑ गा॒तुंप्र॑थ॒मो वि॑वेद॒ नैषा गव्यू॑ति॒रप॑भर्त॒वा उ॑। यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒परे॑ता ए॒ना ज॑ज्ञा॒नाः प॒थ्या॒ अनु॒ स्वाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒म: । न॒: । गा॒तुम् । प्र॒थ॒म: । वि॒वे॒द॒ । न । ए॒षा । गव्यू॑ति: । अप॑ऽभ॒र्त॒वै । ऊं॒ इति॑ । यत्र॑ । न॒: । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइता: । ए॒ना । ज॒ज्ञा॒ना: । प॒थ्या᳡:। अनु॑ । स्वा: ॥१.५०॥
स्वर रहित मन्त्र
यमो नो गातुंप्रथमो विवेद नैषा गव्यूतिरपभर्तवा उ। यत्रा नः पूर्वे पितरःपरेता एना जज्ञानाः पथ्या अनु स्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठयम: । न: । गातुम् । प्रथम: । विवेद । न । एषा । गव्यूति: । अपऽभर्तवै । ऊं इति । यत्र । न: । पूर्वे । पितर: । पराऽइता: । एना । जज्ञाना: । पथ्या:। अनु । स्वा: ॥१.५०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 50
भाषार्थ -
(प्रथमः) अनादि सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर ने (नः) हमें (गातुम्) जीवन-मार्ग, वेदों द्वारा (विवेद) विवेकपूर्वक दर्शाया है। (एषा) यह (गव्यूतिः) जीवनमार्ग (उ) निश्चय ही (अपभर्तवे) अपभरण अर्थात् अपहरण के लिये, त्याग के लिये (न) नहीं है। (यत्र) जिस मार्ग में (नः) हमारे (पूर्व) पूर्व के (पितरः) पिता पितामह तथा प्रपितामह (परेताः) चले हैं, अर्थात् वानप्रस्थ-संन्यास धारण कर दूर-दूर चले गये हैं, (जज्ञानाः) उन से उत्पन्न ज्ञानी हम गृहस्थी भी (एनाः) इन (स्वाः) अपनाएं (पथ्याः) हितकर मार्गों पर, (अनु) उनके पश्चात्, निरन्तर चलते रहें।
टिप्पणी -
[अप + भृ = अप + हृ। हृग्रहोः भः छन्दसि। परेताः= "परा + इताः" शब्द "मृत्यु" अर्थ का वाचक नहीं। सूर्या सूक्त के विवाह-प्रकरण में नव-विवाहित वधू को कहा है कि- 'एवा त्वं सम्राज्ञ्येधि पत्युरस्तं परेत्य" (अथर्व० १४। १।४३)। में "परेत्य" शब्द का अर्थ है "जाकर", न कि मर कर। इस सम्बन्ध में अथर्ववेद के निम्ननिर्दिष्ट मन्त्र द्रष्टव्य हैं। ५।२२।८; ४।३२।५; २।२६।१; १२।२।२९।]