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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    न ति॑ष्ठन्ति॒ ननि मि॑षन्त्ये॒ते दे॒वानां॒ स्पश॑ इ॒ह ये च॑रन्ति। अ॒न्येन॒ मदा॑हनो याहि॒तूयं॒ तेन॒ वि वृ॑ह॒ रथ्ये॑व च॒क्रा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । न । नि । मि॒ष॒न्ति॒ । ए॒ते । दे॒वाना॑म् । स्पश॑: । इ॒ह । ये । चर॑न्ति । अ॒न्येन॑ । आ॒ह॒न॒: । या॒हि॒ । तूय॑म् । तेन॑ । वि । वृ॒ह॒ । रथ्या॑ऽइव । च॒क्रा ॥१.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तिष्ठन्ति ननि मिषन्त्येते देवानां स्पश इह ये चरन्ति। अन्येन मदाहनो याहितूयं तेन वि वृह रथ्येव चक्रा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । तिष्ठन्ति । न । नि । मिषन्ति । एते । देवानाम् । स्पश: । इह । ये । चरन्ति । अन्येन । आहन: । याहि । तूयम् । तेन । वि । वृह । रथ्याऽइव । चक्रा ॥१.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 9

    भाषार्थ -
    यम कहता हैं यमी से कि– (देवानां एते स्पशः) देवों के ये गुप्तचर, (ये) जो कि (इह) इस संसार में (चरन्ति) विचर रहे हैं, वे (न तिष्ठन्ति) न तो विश्राम करते हैं, और (न निमिषन्ति) न आंखें बन्द करते हैं, अर्थात् सब को देखते रहते हैं। (आहनः) हे हृदय पर चोट करनेवाली ! (मत्) मुझ से (अन्येन) भिन्न पुरुष के साथ तू (तूयम्) शीघ्र (याहि) चली जा। (तेन) उसके साथ (विवृह) तू उद्यम कर, गृहस्थ मार्ग पर चल (इव) जैसे कि (रथ्या चक्रा) रथ के दो चक्र परस्पर बन्धे हुए मार्ग पर चलते हैं।

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