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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    स्ते॒गो नक्षामत्ये॑षि पृथि॒वीं म॒ही नो॒ वाता॑ इ॒ह वा॑न्तु॒ भूमौ॑। मि॒त्रो नो॒ अत्र॒वरु॑णो यु॒ज्यमा॑नो अ॒ग्निर्वने॒ न व्य॑सृष्ट॒ शोक॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्ते॒ग: । न । क्षाम् । अति॑ । ए॒षि॒ । पृ॒थि॒वीम् । म॒ही इति॑ । न॒:। वाता॑: । इ॒ह । वा॒न्तु॒ । भूमौ॑ । मि॒त्र: । न॒: । अत्र॑ । वरु॑ण: । यु॒ज्यमा॑न: । अ॒ग्नि: । वने॑ । न । वि । अ॒सृ॒ष्ट॒ । शोक॑म् ॥१.३९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तेगो नक्षामत्येषि पृथिवीं मही नो वाता इह वान्तु भूमौ। मित्रो नो अत्रवरुणो युज्यमानो अग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तेग: । न । क्षाम् । अति । एषि । पृथिवीम् । मही इति । न:। वाता: । इह । वान्तु । भूमौ । मित्र: । न: । अत्र । वरुण: । युज्यमान: । अग्नि: । वने । न । वि । असृष्ट । शोकम् ॥१.३९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 39

    भाषार्थ -
    (स्तेगः न) हरिण जैसे (अति) बाधाओं का अतिक्रमण करके (क्षां पृथिवीम्) निज निवासस्थान को प्राप्त करता है, वैसे आप हमारे अन्तरायों का (अति) अतिक्रमण करके (एषि) हमें प्राप्त हों। आप की कृपा से, (नः) हमारे लिये, (इह) इस (मही भूमौ) महाभूमि में (वाताः) सुखकर वायुएं (वान्तु) बहें। (युज्यमानः) योगविधि द्वारा युक्त किया गया (मित्रः) सर्व-मित्र और (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, (नः) हमारे (अत्र) इन जीवनों में, (शोकम्) निज प्रकाश का (व्यसृष्ट) विसर्जन करे, (नः) जैसे कि (अग्निः) आग (वने) वन में (शोकं व्यसृष्ट) प्रकाश का विसर्जन करती है [स्तेग = stag (हरिण)। व्यसृष्ट = विसर्जन, विशेष सर्जन।]

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