अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 55
सूक्त - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
अपे॑त॒ वीत॒ विच॑ सर्प॒तातो॒ऽस्मा ए॒तं पि॒तरो॑ लो॒कम॑क्रन्।अहो॑भिर॒द्भिर॒क्तुभि॒र्व्यक्तं य॒मो द॑दात्यव॒सान॑मस्मै ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒त॒ । वि । इ॒त॒ । तवि । च॒ । स॒र्प॒त॒ । अत॑: । अ॒स्मै । ए॒तम् । पि॒तर॑: । लो॒कम् । अ॒क्र॒न् । अह॑:ऽभि: । अ॒त्ऽभि: । अ॒क्तुऽभि॑: । विऽअ॑क्तम् । य॒म: । द॒दा॒ति॒ । अ॒व॒ऽसान॑म् । अ॒स्मै॒ ॥१.५५॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेत वीत विच सर्पतातोऽस्मा एतं पितरो लोकमक्रन्।अहोभिरद्भिरक्तुभिर्व्यक्तं यमो ददात्यवसानमस्मै ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इत । वि । इत । तवि । च । सर्पत । अत: । अस्मै । एतम् । पितर: । लोकम् । अक्रन् । अह:ऽभि: । अत्ऽभि: । अक्तुऽभि: । विऽअक्तम् । यम: । ददाति । अवऽसानम् । अस्मै ॥१.५५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 55
भाषार्थ -
हे पुरातन आश्रमवासियो ! जो तुम इस आश्रम के समय को समाप्त कर चुके हो, वे तुम (अतः अपेत) इस आश्रम से पृथक् होओ, (वीत) अगले अगले विविध आश्रमों में चले जाओ, (वि सर्पत) अलग-अलग आश्रमों में फैल जाओ। (पितरः) इस आश्रम के पितृ लोगों ने (अस्मै) इन नवागत आश्रमियों के लिये (लोकम्) स्थान (अक्रन्) नियत कर दिये हैं। (यमः) यम-नियमों तथा नियन्त्रण के आचार्य ने (अस्मै) इन नवागतों के लिये (अवसानम्) निवासस्थान (ददातु) नियत करे, जो निवासस्थान कि (अहोभिः अक्तुभिः) दिनों और रात्रियों की दृष्टि से (व्यक्तम्) अभिव्यक्त अर्थात सुखदायी हों, और जो (अद्भिः) जल-प्रबन्ध की दृष्टि से सुखदायी हों।
टिप्पणी -
[अस्मै = इस नवागत शिष्यसमूह के लिये। वि + सृप् = To go about in different dirietion (आप्टे)। अवसानम्= place, स्थान (आप्टे)। एक श्रेणी के विद्यार्थी पास होकर जब अगली श्रेणी में चले जाते हैं, तो उन की पहली श्रेणी में नव विद्यार्थी प्रविष्ट कर लिये जाते हैं, इसी प्रकार की आश्रमव्यवस्था का वर्णन इस मन्त्र में प्रतीत होता है।]